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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २६१ नयुताङ्ग (न3ए) नयुत (पउअंगे) प्रयुताङ्ग (पउए) प्रयुत (चुलिअंगे) चूलिकाङ्ग (चूलिया) चूलिका (सीसपहे लअंगे ) शीर्षप्रहेलिकाङ्ग ( सीसपहलिना ) शीर्षप्रहेलिका (पलि ग्रोवमे सागरोवमे) पल्योपम सागगेपम (आयसमोसारेणं ) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयरइ,) समवतीर्ण होता है, और ( तदुभयसमो पारेणं ) तदुभयसमवतार से (ोसप्पिणीस्तपिणीस) अवसर्पिणो उत्सर्पिणी में (समोयरइ अायभावे अ) ओर आत्म भाव में समवतीण होता है (ोसदिमणीउस्स प्पिणोश्रो ) अवसर्पिणी उस्मर्पिणी (प्राय समोआरेणं) अत्मसमवतार से (आयभावे) श्रात्मभाव में (समोयरड) समवतोर्ण होता है और (तदुभयसमोप्रारंणं) तदुभयसमवतार से (पोगल परिअटे) पुद्गलपरावर्ग में (समोयरइ प्रायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, (पोग्गलपरिअ) पुद्गलपरावत (आयसमोसारेणं) प्रात्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (लमोयाड,) समवतीर्ण होता है और ( तदुभयसमोआरेणं) तदुभयसमवतार से (तीतहाअणागतद्वानु) अतीत और भविष्यत काल में ( समोयरइ प्रायभावे अ,) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है, (तीतद्वाअणागतद्वाउ प्रायसमोसारेणं) अतीत और भविष्यकाल अात्मससवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (सामोयरइ) समवतीर्ण होता है. और (तदुयभसमोसारेणं) तदुभयसमवतार से (सव्वदाए) सभी काल में ( समोयग्इ अायभावे श्र।) और आत्मभाव में समवतीर्ण होता है । (से तं कालसमोपारे ।) यही कालसमवतार है। - भावार्थ-न्यून से न्यून समय का सभी काल में समवतरण करना उसे काल समयतार कहते हैं । इसके दो भेद है-अात्मसमवतार और तदुभयसमय. सार । आत्मसमवतार उसे कहते हैं जो अपने ही भाव में हो, जैसे कि --'श्रीन' आत्मसमवतार से अपने ही रूप में समवतीर्ण होता है । तथा तदुभयसमवतार इसे कहते हैं जो परस्वरूप और श्रात्मभाव, दोनों में हो, जैसे--'आन' तदुभयसमवतार से श्रात्मभाव में भी है और परस्वरूप से 'प्राण' में भी समवतीर्ण होता है। इसी प्रकार सब काल का स्वरूप जानना चाहिये । इसी को काल. समवतार कहते हैं। अब भावसमवतार का वर्णन किया जाता है भासमवतार से किं तं भावसमोआरे ? दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ। कोहे आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं माणो For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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