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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । [ उत्तरार्धम् । २०७ रन करत एप, लेखन करते हुए को देख कर जब किसीने पछा, तब उसने विशु. खतरनैगम नय के मतसे उत्तर दिया कि-'प्रस्थक को तक्षण करता हूँ, उत्कीरन करता हूँ, लेखन करता हूँ' इत्यादि । क्योंकि विशुद्धतर नैगम नय के मत से जब प्रस्थक नामांकित हो गया तभी पूर्ण प्रस्थक माना जाता है। __संग्रह नय के मत से सब वस्तु सामान्य रूप है, इस लिये जब वह धान्य से परिपूर्ण भरा हो तभी उसको प्रस्थक कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो घटपटादि वस्तु भी प्रस्थक संशक हो जायगी। इस वास्ते जब वह घान्यों से परिपूर्ण भरा हो और अपना कार्य करता हो तभी वह प्रस्थक कहा जाता है। इसी प्रकार व्यवहार नय का भी मत है। ऋजुसत्र नय के मत से प्रस्थक और प्रस्थक से प्रमाण को हुई वस्तु. दोनों ही प्रस्थक रूप मानी जाती हैं, क्योंकि दोनों को ही प्रस्थक कहने की रूढ़ि है, और दोनों में प्रस्थक का शान होता है। यह नय वर्तमान काल को ही मानता है; भूत, भविष्य को नहीं। - शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन तीनों को शब्द नय कहते हैं, क्योंकि ये शब्द के अनुकूल अर्थ मानते हैं। आद्य के चार नय अर्थ को प्राधान्य मानते हैं। इस लिये शब्द नयों के मत से जो प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता हो, वही प्रस्थक है, क्योंकि-जिसके उपयोग से प्रस्थक की निष्पत्ति है वास्तव में यही प्रस्थक है, अन्य नहीं और बिना उपयोग के प्रस्थक उत्पन्न हो ही नहीं सकता। इस लिये ये तीनों भावनय हैं। सभी वस्तु अपने सद्भाव में सदैव काल विद्यमान हैं। इस वास्त जिस वस्तु में जिस जीव का उपयोग होता है, शब्द नय के मत से उपयोग युक जीव को ही वस्तु कहा जाता है, क्योंकि-"उवभोगो जीवलक्खणं" उपयोग लक्षण आत्मा का ही होता है। इस लिये जिस के द्वारा प्रस्थक की उत्पत्ति होती है, उस जीव को ही इन नयों के मत से प्रस्थक कहा जाता है। इस प्रकार प्रस्थक के इष्टन्त द्वारा सातो नयों का स्वरूप दिखलाया गया है। भव द्वितीय वसति के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है से किं तं वसहिदिटुंतेणं ? से जहानामए केई पुरिसे . * "वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिंगे हः।" मा० ।। १ । २१४ । एषु तस्य हो भवति । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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