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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] १९६ (चरितगुणप्पमाणे) जो अनिन्दतपने निरवद्यानुष्ठान* रूप काचरण है उसे चारित्र कहते हैं, और वह (पंचविहे पण त्ते) पांच + प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ( तं जहा ) जैसे कि - ( सामाइन चरितगुण पमा) सामायिक चारित्र गुणप्रमाण १, ( श्रवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणें ) छेदोपस्थापनीय चारित्रगुणप्रमाण २, (परिहारविसुद्धिचरिधगुणप्पमाणे ) परिहारविशुद्धि चारित्रगुणप्रमाण ३, ( मुहुमसंपरायचरितगुप्पमाणे ) सूक्ष्म सम्परायचारित्रगुणप्रमाण ४, (* श्रहखायचरिचगुणप्पमाणे) अथाख्यात चारित्रगुणप्रमाण ५ । ( सामाइन चरिचगुणप्पमाणे ) सामायिक चारित्रगुणप्रमाण (दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है (तं जहा-) जैसे कि -- ( इरिए ) इत्वरिक - स्वल्पकालिक और (आवहिए अ । ) यावत्कथिक - - आयुः पर्यन्त ं । (छेश्रोवट्ठावणचरितगुण पमाणे ) छेदोपस्थापनीय चारित्रगुण प्रमाण ( दुविहे पत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( साइयारे य ) अतिचारों के निमित्त से जो छेदोपस्थापन प्रायश्चित्त प्राप्त हो उसे सातिचार कहते हैं, और (निरइयारं य ।) जो बिना + अतिचारों के कारण प्राप्त हो उसे निरतिचार कहते हैं । ( परिहारविसुद्धिश्रचरितगुरु * चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चारित्रं, तदेव चरित्र, चारित्रमेव गुण: चारित्रगुणः, स एव प्रमाणं चारित्रगुणप्रमाणं - सावव्ययोगविरतिरूपम् । + पञ्चविधमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव छेदादिविशेषैः विशेप्यमाणं पञ्चधा भियते, तत्राय विशेषाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति । * 'अथ' शब्दो ऽत्र अभिविधौ । अथवा यथाख्यातमित्यपि नामान्तरम् । + भरत और ऐश्वत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु जहां तक छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार नहीं करते वहां तक उनका सामायिक चारित्र ही होता है । इस लिये सामायिक चारित्र इत्वरिंक - स्वल्पकालिक कहलाता है । तथा-भरत और ऐश्वत क्षेत्र के शेषा बावीस तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के साधुओंों की सदैव सामायिक चारित्र होता है, इस लिये यावत्कथि अर्थादक श्रायुः पर्यन्त भी कहलाता है । x भरत और ऐश्वत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधुओं को प्रथम दीक्षा के समय सामायिक चारित्र के ७ दिन या ४ महीने या ६ महीने के बाद पांच महाव्रत श्रारोपण रूप निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है । तथा पार्श्वनाथ भगवान् शासन कालके साधु यदि भगवान् महावीर स्वामी के शासन में था तब उनको भी निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है । और जो साधु मूलगुण के नाशक हों उनको सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र होत है । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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