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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [उत्तरार्धम] २३३ भावार्थ-जिसकी गणना की जाय उसे सङ्ख्या कहते हैं, और जिसमें पर्यवादि का परिमाण हो उसे परिमाण संख्या कहते हैं । इसके दो भेद हैं, जैसे कि-कालिकश्रु त परिमाण संख्या १, और दृष्टिवादश्रु त परिमाण संख्या २। जिन २ सूत्रों की प्रथम या दूसरे प्रहर में वाचना दी जाय और उनका जिसमें परिमाण हो उसे कालिकश्रु त परिमाण संख्या कहते हैं । इसके अनेक भेद है, जैसे कि-पर्याय संख्या १, अक्षर संख्या २, संघात संख्या ३, पद संख्या ४, पाद संख्या ५, गाथा संख्या ६, संख्या संख्या ७, श्लोक संख्या ८, वेष्टक संख्या ६, नियुक्ति संख्या १०, अनुयोगद्वार संख्या ११, उद्देशक संख्या १२, अध्ययन संख्या १३, श्र तस्कन्ध संख्या १४, और अंग संख्या १५ । । तथा--दृष्टिवादश्रत परिमाण संख्या भी इसी प्रकार जानना चाहिये। लेकिन प्राभत संख्या, प्राभृतिका संख्या, प्राभृत प्राभृतिका संख्या और वस्तु संख्या, इतना विशेष जानना चाहिये । इसी का परिमाण संख्य' कहते हैं। इसके बाद अब ज्ञान संख्या का स्वरूप वर्णन किया जाता है ज्ञान संख्या से किं तं जाणणासंखा ? जो जं जाणइ. तं जहासईसटिओ गणिअं गणिो निमित्तं नैमित्तिो कालं कालणाणी वेजयं वेजो, से तं जाणणासंखा । पदार्थ-(से के तं जाण सखा ?) ज्ञान* संख्या किसे कहते हैं ? (जाणणासंखा) ज्ञान संख्या उसे कहते हैं कि-(जो जं जाणइ,) जो जिसको जानना हो, ( जहा-) जैसे क-(सदं सदियो) जो शब्द को जानता हो उसे शाब्दिक (गणिनं गगियो) जो गणित को जानता हो उसे गणितज्ञ, ( निमित्तं नेमत्तियो ) जो निमित्त को जानता हो उसे नैमित्तिक, ( कालं कालणाणी ) जो काल को जानता हा उसे कालज्ञानी-कालज्ञ (वेजय वेजो,) जो वैद्यक जानता हो उसे वैद्य कहते हैं, ( से तं जाणणासंखा । ) यही ज्ञान संख्या है। * "ज्ञो यः ।" प्रा० । सू० । ८ । २ । ८३ । ज्ञः सम्बन्धिनो अस्य लुग वा भवति । माणं-णाणं-ज्ञानम् । इत्यादि । + यहां पर अभेदोपचार नयके मतसे वर्णन किया जारहा है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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