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[श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
३०७ चालना और प्रसिद्धि के साथ सूत्र की व्याख्या करना चाहिये । इस में सूत्रो. च्चारण और पदच्छेद करने से सूत्रानुगम का विषय सिद्ध होता है । फिर सूत्रा. च्चार और पदच्छेद करे फिर सर्व पदोंके निक्षेप करने से सबालापक निक्षेप की सिद्धि होती है। शेष पदविग्रह, चालना और प्रसिद्धि यह सर्व सत्रस्पर्शिकनियुक्ति का विषय है । और आगे जो नय को विषय कहा जायेगा, वह भी चालना और प्रसिडि रूप ही है लेकिन सचमुच से तो सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति के अन्तर्गत सात नयों का रूप है । इस प्रकार सूत्र को व्याख्या करने से सूत्रानुगम अल्प काल में ही समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार सत्रस्पर्शिक नियुक्ति का विषय पूर्ण किया गया है । तात्पर्य यह है कि षट् विधि से सूत्राध्ययन करना चाहिये तब ही अर्थ साफल्य को प्राप्त होता और पाठक के मन में किसी प्रकार का भी संदेह नहीं रहता । इस प्रकार तृतीय अनुयोग द्वार की व्याख्या की गई है । अब इसके अनन्तर नय रूप चतुर्थ श्रनुयोग द्वार के विषय में कहते हैं और इसमें विस्तार पूर्वक नयों का विवेचन किया जावेगा क्योंकि स्याद्वादमत अनेक नयात्मक है।
अथ चतुर्थ अनुयोगद्दार । से किं तं णए ? सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहाणेगमे १, संगहे २, ववहारे ३, उज्जुसुए ४. सद्दे ५, समभिरूढ़े ६, एवंभूए ७, तत्थ---
णेगेहि माणेहि मिणइति गमस्स य निरुत्ती। सेसाणंपि नयागां, लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥१ संगहियपिडिअत्थं, संगहवयणं समासओ बिति । बच्चइ विणिच्छिअत्यं, ववहारो सव्वदव्वेसु ॥२॥ पच्चुप्पन्नग्गाही, उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्यो । इच्छइ विसेसियतरं, पच्चुप्पण्णं णो सददो ॥ ३ ॥ वत्थूओ संकमणं, होइ अवत्थूनए समभिरूढ़े । वंजणअत्थतदुभयं, एवंभूशो विसेसेइ ॥ ४ ॥
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