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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
३०१
३०१ कमभिन्नवयणमिन, विभत्तिभिन्न च लिंगभिन्न च । अणभिहियमपयमेव य, सहावहीणं ववहियं च ॥२॥ कालजतिच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्त च। अत्थावत्ती दोसो, नेश्रो असमासदोसो य ॥३॥ उवमास्वगदोसो, निसपयत्थसंधिदोसो य। एए अ सुत्तदोला, बत्तीसा हुत्ति नायव्वा ॥ ४ ॥
१ अनृतदोष-असत्य दो प्रकार से होता है, प्रथम अविद्यमान पदार्थों का प्रादुर्भाव, जैसे-जगत् का कत्ती ईश्वर है, द्वितीय विद्यमान पदार्थों का अभाव सिद्ध करना, जैसे - आत्मा पदार्थ नहीं है।
२ उपधातजनक-जीवों का नाश करना, जैसे-वेद में वर्णन की हुई हिंसा धर्म रूप है, अर्थात् वेदवाक्यवत् ।
३ निरर्थकवचन-जिन अक्षरों का अनुक्रम पूर्वक उच्चारण तो मालुम होता है, लेकिन अर्थ सिद्ध कुछ भी नहीं होता, जैसे अश्रा इई उ ऊ ऋऋ तृल इत्यादि । अथवा डित्थवित्थादि असंबद्ध-सम्बन्धरहित निरर्थक वचन दोष होता है, जैसे कि-दश दाडिम, छह अपूप, कुण्ड में बकरा।
४ अनवस्थादोष जिस कथन में अनवस्था दोष की प्राप्ति हो तथा किसी प्रकार की भी जिसमें युक्ति काम न करे, जैसे कि -भाइयव्यो पपसो।
५ छलदोष-जिस में अनिच्छा अर्थ की सिद्धि हो जाय, तथा किये हुए अर्थ को आघात पहुँचे, विवक्षितार्थ का उपघात हो जाय, उस स्थल को छल दोष कहते हैं, जैसे कि-प्राणियों का कल्याण न होने की इच्छा से पापव्यापारपोषक रूप उपदेश करना जैसे नवकम्बलो देवदत्तः।
६ गुहिलक-जिस स्थान पर अतीव वर्णो का संग्रह हो, और वे पापों के पोषक हों, जैसे कि
एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः। भद्र ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः॥१॥ पिव खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥
अर्थात् जितना आंखों से दिखाई देता है उतना ही लोक है, इसलिये हे भद्रे ! बगुले का पैर देख जिसे अल्पज्ञानी कहते हैं।
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