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[ उत्तराधम् ]
२६ श्रर्थापत्ति दोष -जिस स्थान पर अर्थापत्ति करने से अनिष्ट फल की प्राप्ति हो जाए वह अर्थापत्ति दोष होता है। जैसे कि गृहकुक्कटो न हन्तव्यः अर्थात् घरका मुर्गा न मारना चाहिये, इस कथन से अर्थापत्ति होती है । क्योंकि - शेषघातोऽदुष्ट इत्यापतति शेष को मारना चाहिये, ऐसा सिद्ध होता है । अन्य स्थान पर कुक्कुट का वध निर्दोष सिद्ध होता है।
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२७ असमास दोष -जिस स्थान पर जिस समास की प्राप्ति हो उस स्थान पर उस समास को छोड़कर अन्य समास कर देवे तो असमासदोष होता है।
२८ उपमा दोष --हीन उपमा । जैसे कि मेरुः सर्षपोपमाः । अथवा अधिक उपमा - सर्पपो मेरुसनिभः । अथवा अन्य विपरीत उपमा करना, जैसे किमेरुः समुद्रोपमः । यह उपमा दोष होता है ।
२६ रूपक दोष -- स्वरूप को छोड़कर उसके अवयवों का प्रतिपादन करना, जैसे कि -- पर्वत के निरूपण को छोड़ कर शिखर आदि उसके अवयवों का निरूपण करना, या अन्य कोई समुद्र के अवयवों का निरूपण करना ।
३० निर्दोश दोष -- जिस वचन का उच्चारण कर दिया है फिर उसका एक ब्राज्य न करना । जैसे कि -- देवदतः स्थाल्यामोदनं पचति, इत्यभिधातव्ये पचति शब्दं नाभिधत्ते । देवदत्त स्थाली में चांवल पकाता है, ऐसा कहना लेकिन वहां पर पचति नहीं कहना ।
३१ पदार्थ दोष -- जिस वस्तु के पर्याय को एक पदार्थान्तर मानना पदार्थदोष होता है । जैसे कि "सतो भावः" सत्तेति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यन्ते तच्चायुक्तम् । वस्तूनामनन्त पर्यायत्वेन पदार्थानस्यप्रसङ्गादिनि । इस कथन से वस्तु का सत्ता भाष सिद्ध होता है, और वैशेषिक दर्शन ने षट् पदार्थ के अंतर्गत सत्ता मानी है । अतः उनका यह एकान्त कहना अयुक्त है ।
३२ सन्धिदोष-जहां पर सन्धि होना चाहिये, वहां पर सन्धि नहीं करना, अथवा करना तो ग़लत करना, यह सन्धिदोष है । भरतो वन्दितु गच्छति - भरत बन्दन करने जाता है। ऐसा कहते हुए भरतः वन्दितु ं कहना । इन बत्तीस दोष से जो रहित है उसे ही लक्षण युक्त सूत्र कहते हैं, तथा भ्राढ गुणों से जो यक्त है वही लक्षण युक्त सून्न होता है, जैसे कि
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