________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
[ उत्तराधेम]
૨૫ (नोग्रागमो भावज्झीणे ? नो पागम से भावाक्षीण उसे कहते हैं-कि जो श्रत ज्ञान का दान करने से श्रुत का क्षय न हो वही नो भागम से भाव अक्षोणता है।
(नह दीवा दोवसयं पइप्पए दिप्पए अ सी दीबो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवंति ॥१॥) जैसे कि दीपक स्वयं प्रकाशमान रहते हुए सैकड़ों दूसरे दीपकों को प्रकाशमान करता है, उसी प्रकार आचार्य महाराज स्वयं दीपक के समान देदीप्यमान हैं और दूसरों को अर्थात् शिष्य वर्ग को देदीप्यमान करते हैं।
(से तं नोप्रागपनो भावज्झीणे ।) यहो नोआगम से भावाक्षीण है । (से तं भावज्झीणे ।) यही * भावाक्षीण है । (से तं अज्झोणे ।) यही अक्षोण है।
भावार्थ-भावाक्षीणता के चार भेद हैं,-नामाक्षीण, स्थापनाक्षीण, द्र. व्याक्षण और भावाक्षीण । नाम और स्थापना पूर्ववत् जानना चाहिये । द्रव्याक्षीण दो प्रकार से प्रतिपादन की गई, जैसे कि-श्रागम से और नोागम से । जो अक्षीण शब्द को उपयोग पूर्वक जानता हो उसे पागम अक्षीण कहते हैं। तथो-नोआगम से अक्षीण पूर्ववत् तीन प्रकार से जानना चाहिये, सिर्फ व्यतिरिक्त तृतीय भेद में सब आकाश की श्रेणिये ग्रहण करना चाहिये क्योंकि वे अनन्त होने से किसी प्रकार भी क्षीण नहीं हो सकतीं तथा-भावाक्षीणता के द. भेद हैं जैसे कि-आगम से और नोआगम से । श्रागम से भाव अक्षण उसे कहते हैं जो अक्षीण शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता हो, और पागम से भाव अक्षीण उसे कहते हैं जो किसी प्रकार भी व्यय करने से क्षीण न हो, जैसे-एक दीपक से सैकड़ों दुसरे दीपक प्रदीप्त किये जाते हैं परन्तु असली दीपक किसी प्रकार भी नष्ट नहीं होता. इसी प्रकार प्राचार्य महाराज श्रत का दान-पठन-पाठन करते हुए आर भी दीप्त रहते हैं, और दूसरों को अर्थात् शिष्य वर्ग को भी प्रकाशमान करते हैं । श्रत का क्षीण न होगा यही भावाशीण है। अतः यही नोागम से भाव अक्षीणता है। भावाक्षीण तथा अक्षीण का वर्णन यहां समाप्त होता है। इसके अनन्तर पाय-लाभ का स्वरूप जानना चाहिये
प्राय से किं तं आए ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहो-नामाए * अत्र च नोग्रागमतो भावाक्षीणता श्रुतदायकाचायोपयोगस्यागमत्वादाकाययोगयोश्चानागमत्वानोशब्दस्य मिश्रवचनत्वाद्भावनीयेति रडा व्याचक्षते।
For Private and Personal Use Only