________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
[ उत्तरार्धम् ]
२६३
( कोहे मा माया, लोभे रागे य मोहणिज्जे । पगडीभावे जीवे, जीवथिकाय दत्राय ॥१॥) क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और मोहनीय कर्म, प्रकृतियें, भाव, जोव, जीवास्तिकाय और द्रव्य, ये सभी श्रात्मसमवतार से अपने ही स्वरूप में रहते हैं और तदुभयसमवतार से परस्वरूप में भी होते हैं । ( से तं भावसमोारे । ) यही भावसमवतार है । (से तं समोग्रारे) यही समवतार है । ( से तं उवकमे । ) यही उपक्रम है | ( कम इति पदमंदा ) उपक्रम नामक प्रथम द्वार समाप्त हुआ । (सू० १५२) भावार्थ - भावसमवतार के दो भेद हैं, श्रात्मसमवतार और तदुभयसमव तरि आत्मसमवतार उसे कहते हैं जो अपने ही स्वरूप में हो, जैसे कि-'क्रोध' श्रात्मसमवतार के अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होता है ।
तथा तदुभयसमवतार उसे कहते हैं जो स्वरूप और पररूप दोनों में हो । जैसे कि--'क्रोध' तदुभयसमवतार से आत्मभाव में भी है और पर स्वरूप से मान में समवतीर्ण होता है । इसी प्रकार जीवास्तिकाय श्रादि सभी द्रव्यों को जानना चाहिये |
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
" अत्र च प्रस्तुते श्रावश्यके विचार्यमाणे सामायिकाद्यध्ययननपि चायापशमिकभावरूपत्वात् पूर्वोक्तेष्वानुपूर्व्यादिभेदेषु क्व समवतरतीति निरूपणीयमेव, शास्त्रकारप्रवृत्तेरन्यत्र तथैव दर्शनात्, तच्च सुखावतेयत्वादिकारणात् सूत्रे न निरूापतम् सापयोगत्वात्स्थानशून्यत्वार्थं किंचिद्वयमेव निरूपयामः । तत्र सामा यिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्याद्यत् तिनविषयत्वात सामायिकाद्यध्ययनमुत्कीर्तना
き
नुपूर्व्यां समवतरति, तथा गणनापूर्व्यां च तथाहि - पूर्व्यानुपूर्व्या गण्यमानमिदं प्रथमं, पश्चानुपूर्व्या तु षष्ठम्, अनानुपूर्व्यां तु द्वयादिस्थानवृत्तित्वादनि यतमिति प्रागेवोक्तम् । नाम्नि च श्रदयिकादिभावभेदात्षण्णामनि प्रागुक्तम्, तत्र सामायिकाध्ययनं श्रुताझनरूपत्वेन चायोपशमिकभाववृत्तित्वात्थायापशमिकभावनाम्नि समवतरति । श्राह च भाष्यकारः
"छव्विहनामे भावे, खोवसामिए सुय समोयरद्द |
जं सुयनारणावरण खोव समियं तयं सव्वं ॥ ॥”
प्रमाणे च द्रव्यादिभेदैः प्राग्निर्णीते जीवभावरूपत्वाद्भावप्रमाणे इदं समत्र
तरतीति । उक्तञ्च -
"द वाइच उन्भेयं, पमीयए जेण तं पमाणंति ! इज्यरणं भावोति भाव माणे समोयरइ । "
For Private and Personal Use Only