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[ उत्तरार्धम् । (अज्झापस्साणयां कम्पाणं अवचो उचिप्राणं । अणुवचनो अ वराणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥१॥) अध्यात्म में आने के लिये उपार्जित किये हुये कर्मों का क्षय हो तथा नये कर्मों की उत्पत्ति न होगा, इसी लिये आचार्य लोग 'अध्ययन' को चाहते हैं।२।। (से तं गोमागम यो भावमयणे ।) यहो नोआगम से भावाध्ययन है, (से तं भावज्झयो,) तथा यही भावाध्ययन है, ( से तं अज्झयणे ।) और इसी को अध्ययन कहते हैं।
भावार्थ-निक्षप तीन हैं, जैसे कि-ओघनिष्पन्न १, नामनिष्पन्न २, और सूत्रालापकनिष्पन्न ३ ।
ओघनिष्पन्न चार प्रकार का है, जैसे कि-अध्ययन १, अक्षीण २,आय ३, ओर क्षपणा ४।
अध्ययन के चार भेद हैं, जैसे कि -- नाम १, स्थापना २, द्रव्य ३ और भाव ४। नाम ओर स्थापना का स्वरूप पूर्ववत् जानना चाहिये।
द्रव्य अध्ययन के दो भेद है, जैसे कि -आगम से १, और नोआगम से २। जो अध्ययन को उपयाग पूर्वक नहीं पढ़ता है उसे आगम से द्रव्य अध्ययन कहते है । और नोआगम से द्रव्याध्ययन तीन प्रकार से वर्णन किया गया है, जैसे कि-शरीर द्रव्याध्ययन १, भव्यशरीर द्रव्य अध्ययन २, शशरीर-भव्य शरीरव्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन ३ । प्रथम दोनों का स्वरूप नो प्रागम ही है लेकिन तृतीय व्यतिरिक्त द्रव्याध्ययन वह है जो पत्र और पुस्तक रूपमें लिखा हुआ हो, इस लिये इसे नोअगम से द्रव्याध्ययन कहते हैं । तया भावाध्ययन भी दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-आगम से और नोश्रागन स, अगम से भावाध्ययन वह है जो उपयोग पूर्वक होता है और नोआगम से भावाध्ययन वह है जिसके द्वारा नूतन कर्मों का उपचय न हो और प्राचीन कर्मों का तय हो,यही नोआगम से भावाध्ययन का स्वरूप है तथा यहो भावाध्ययन है और यहा अध्ययन है। इसके बाद अक्षीण निक्षेप का वर्णन किया जाता है
अक्षीण हार। से किं तं अज्झोणे? चउविहे पएणत्ते, तं जहा-नामझोणे ठवणझणे दबझोण भावज्झागो । नामठव
"अज्झप्पस्साणयण'-सूत्र के निपात द्वारा 'प' 'स' 'श्रा ण' के लोप करने से 'अज्झयण' शब्द की प्राकृत भाषा में व्युत्पत्ति होती है, लेकिन मंस्कृत में 'अध्ययन' कहते हैं।
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