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[ उत्तराधम् ]
२६५ में समवतीर्ण होता है क्योंकि जीव भावप्रमाण में ग्रहण किया गया है । तथाभावप्रमाण के गुण, नय और संख्या यो तीन भेद होनेसे गुण और संख्या प्रमाण में समवतीर्ण होता है । यद्यपि नयविचार की अपेक्षा परमार्थ से कचित् समवतार :: होता है, लेकिन उसी प्रकार नयविचार के प्रभाव से अनवतार ही होता है। तथा गुण प्रमाण के दो भेद होने से इसका जीव गुण प्रमाण में समवतीर्ण होता है, तथा इसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र, यो तीन भेद होने से ज्ञान प्रमाण में समवतीर्ण होता है । फिर प्रत्यक्षादि ज्ञानगुण के चार भेद होने से यह अध्याय आत्मोपदेश रूप आगम प्रमाण में समस्तीर्ण होता है। पश्चात् आगम के दो भेद होने से इसका लोकोत्तरिक ओगम में समवतार होता है। तथा लो. कोत्तरिक आगम के तीन भेद श्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम होने से इसका तीनों ही में समवतीर्ण होता है, और संख्या प्रमाण के पाठ भेद होने से इसका परिमाण संख्या में समवतीर्ण होता है, तथा तीन वक्तव्यताओं में से स्वसमय की वक्तव्यता में इसका समवतीर्ण होता है । यद्यपि उभय समय की वक्तव्यताओं में से स्वसमय की वक्तव्यता में भी समवतीर्ण होता है लेकिन निश्चय से स्वसमय को वक्तव्यता ही जानना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दृ प्टि परसमय और उभय समय की वक्तव्यता को व्याख्यान के समय स्वसमय को कर लेते हैं। कारण कि वे एकान्तबादी नहीं होते, अनेकान्ती होते हैं । इसलिये परमार्थ से सभी अध्ययन स्वसमय की वक्तव्यता में समवतीर्ण होते हैं । इसी प्रकार चतुर्विशतित्तवादिकों का जानना । इस तरह समवतार का वर्णन करते हुए उपक्रम नामक प्रथम द्वार समाप्त हुआ। :पागम में भी कहा है--- "आसज 3 सीयारं, नए नर्यावसारो वृया ।" [आसाद्य तु श्रोतारं नया नयविशारदो व यान]
महामतिनाप्युक्तम्1. "मूदनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इह ।
मूढनयं तु न संपई नयप्पमाणावारो से।" [मूडनयिकं अतं कालिकं तु न नया समवतगन्तीह ।
मृढनयं तु न संप्रति नयप्रमाणावतारस्तस्य ।] * अागम में भी कहा है"परसमग्रो उभयं वा, सम्महि हिस्स ससमयो जेणं ।
तो सबझयणाई, ससमयवत्तनिययाई ॥१॥" पिरसमयं उभयं वा सम्पहरे स्वसमयी येन । नन· सांगणापलानि मा समानतालियानानि ॥१॥
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