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[ उत्तराधम् ]
२५७ (बत्तीसिआ) द्वात्रिंशिका (आयसमोयारेणं) आत्मसमवतार से (प्रायभाव) आत्मभाव में ( समोयरइ,) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारणं) तदुभयसमवतार से (सोल. सिमाए) पोडशिका-१६ पल प्रमाण ( समोयरइ प्रायभाव अ,) आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, फिर (सोलसिया) षोडशिका ( प्रायसमोयारेणं ) आत्मसमवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयरइ) समवतीर्ण होती है, और (तदुभयसमोयारेणं) तदा भय समवतार से ( अट भाइयाए ) अष्टभागिका ( समीपरइ यायभावे श्र,) आत्मभाव में समवतीर्ण होतो है, फिर (अहभाइया) अष्टभागिका (आयसमोपारेणं) आत्मसमवतार से ( प्रायभावे ) आत्मभाव में (समोघरइ) समवतीण होता है, लेकिन (नदुभयसमोपारेणं) तदुभयसमवतार से ( चरभाइयाए ) चतुर्भागिका-६४ पल प्रमाण (समोयरट अायभावे , ) और अात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( चउभाइ या ) चतुर्भागिका (श्रायसमोपारेणं) आत्मसभवतार से (प्रायभावे) आत्मभाव में (समोयर ५,) समवतोर्ण होती है, और (तदुभयसनोयारेणं) तदुभयसमवतार से (अदमाणीए) अर्द्ध माणिका--- १२८ पल प्रमाण में ( समायरइ अायभावे य, ) और आत्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( अद्धमाना ) अर्द्ध माणिका (अयसमीयारेणं) आत्मसमवतार से ( आयभावे समोयरद )
आत्मभाव में समवतोण होती है, (तदुभयसमोयारेण:) तदुभयसमवतार से ( माणीए ) माणिका १५६ पल प्रमाण में ( समोपरइ अायभावे अ.) और प्रात्मभाव में समवतीर्ण होती है, ( से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिने व्वसमीपारे ।) यही पूर्वोक्त ज्ञशरीर, भव्यशरीर, व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार है, और ( से तं गोमागमो दव्वसमोयारे । ) यहो नोमागम से द्रव्यसमवतार है । तथा (से तं दब्बसमोयारे ।) यही द्रव्यसमवतार है।
भावार्थ-किसा भी वस्तु का स्वरूप आत्मभाव, परभाव अथवा तदुभय भाव में समवतरण हो उसे समवतार कहते है । इसक ६ भेद हैं, जैस कि-नाम समवतार १, स्थापनासपमतार २, द्रव्यसमवतार ३, क्षेत्रसमवतार ४, कालस. मवतार ५, और भावसमवतार ६ ! नाम और स्थापना का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिय । शरीर, भव्यशरार और व्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार भो तोन प्रकार से वणन किया गया है, जैसे कि-सब द्रव्य अपन गुण को अपेक्षा प्रात्मभाव में समवतार्ण होते हैं, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा परस्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं, जैसे कि-कुंड में बदरी फल, अथवा घर में स्तम्भ । इस प्रकार उभय स्वरूप में भी समवतीर्ण होते हैं। परन्तु श्रात्मभाव में पेसं समवतरण होते हैं,
+ निश्चय से सभी द्रव्य अपने ही स्वरूप में होते हैं पृथक् कोई नहीं होता, लेकिन व्यवहार से पृथक् भी होते हैं।
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