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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्रमाण 'काकिणो' रत्न होता है, जो कि (छत्तले दुवालसंसिए) षट् वल और बारह अंश तथा (अट्ठकारणार) आठ कौन वाला होता है और इसका ( अहिगरणसंठाणसंठिए पर एते ) अहिरण के आकार जैसा संस्थान प्रतिपादन किया गया है । ( स णं) उस काकणी रत्न को (ए मेगा को) एक एक कोटि ( उस्ते गुलविक्खं भा) उत्सेधांगुल प्रमाण वष्कंभ वाली अर्थात् चौड़ी है । (त) वह (समणम्स भावग्रो महावीरस्स ग्रहगुलं) श्रमण भगवान् श्रीमहावीर का अद्धौगुल है । (तं सरस्सणं पमाणंगुलं भवइ) इसको सहस्र गुण करने से प्रमाणांगुल होता है अर्थात् उत्सेधांगुल से प्रमाणांगुल सहस्र गुणा अधिक होता है । (एएणं अंगुलप्रमाणेण) इस अंगुल के प्रमाण से (छ अंगुला गो) षट् अंगुल का एक पाद, (दा पायाप्रो विहत्थी) दो पादों की एक वितरित, (दो विहत्धीश्रो रय गी) दो वितस्तियों की एक रत्नि-हाथ, (हो रयणीयो कुच्छो) दो रनियों की एक कुक्षि, (को कुच्छीग्रो घण) दो कुक्षियों का एक धनुप, (दो घणु सहस्साई गाउग्रं ) दो हजार धनुषों का एक गव्यूत-कोस, (चत्तारि गाउयाई जोयण) चार गव्यूतों का एक योजन होता है । ( एएवं पनाणं लेणं किं पयउरणं ?) इस प्रमाणांगुल का क्या प्रयोजन है ? (एएणं पमाणं लेणं पुषीणं) इस प्रमागांगुल से रत्नप्रभादि पृश्चियों की, (कंडाण) रत्नकाण्ड आदि काण्डों की, (गा यालाणं) पाताल कलशों की, (भवणाणं) भवनों को, (भषणपत्यडाणं) भवनपतियों के प्रस्तरों की, (निरयाणं) नरकों को, (निरय व जीणं)नरक की पक्तियों को, (नित्यपत्थडाणं) नरक के प्रस्तरों की, (क-गाणं) कल्पों की, (वाणणं) विमानों को, (वेवाणावलीणं) विमानों की पंक्तियों की, (विमाणपत्थडाण) विमानों के प्रस्तरों की, (काणं) छिन्नटंकों की, (कडाणं) कूटों को, (सेनाणं) पर्वतों की, (सिहरोणं) शिखरो पर्वतों की, (पन्नाराणं) नम् पर्वतों को, (वे नयाणं) विजयों की, (वाराणं) वक्षार पर्वतों की, (वासाणं) क्षेत्रों की, (वास हराणं) वर्षधर पर्वतो.की, (वे जाणं) समुद्र को वेलाओं की, (वेइयाणं) वेदिकाओं को, (दाराणं) द्वारों को, (तोरणाण) तोरणों की, (दीवाणं)द्वीपों की, (समुदाणं) समुद्रों को, ( पायानविक्वंभोच्चत्तोबेहपरिक्खेवा ) लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई और परिधि (मविज्जति) नापी जाती है।
(से समासो तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-) वह प्रमाणांगुल संक्षेप से तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है । जैसे कि (सेढीअंतुले, पपरंगुले, धणं गुले) श्रेणि-अंगुल १, प्रत. रांगुल २, और घनांगुल ३ असंखे ज़ायो जोषण कोडाकोडीयो सेढी) प्रमाणांगल के प्रमाण *श्रीमहावीरस्वामी स्वहाथों से साढ़े तीन हाथ प्रमाण और उत्सेवांगुल से सात हाथ प्रमाण हैं । + भवनपति देवों के त्रयोदश अन्तर स्थान को 'स्तट' कहते हैं।
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