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[ उत्तरार्धम् ]
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इस प्रकार यह सातों नयों का संक्षेय स्वरूप है । ये सातों नय अपना २ मत निरपेक्षता से वर्णन करते हुए दुर्नय हो जाते हैं 'सौगतादि समयवत्' और परस्पर सापेक्ष होते हुए सन्नय हो जाते हैं। उन सतों नयों का जो परस्पर सापेक्ष कथन है, वही सम्पूर्ण जैन मत है। क्योंकि जन मत अनेक नयात्मक है, एक नयात्मक नहीं । जैसे कि -स्तुतिकार ने भी कहा है कि"उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वभि नाथदृष्टयः ।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ २॥”
'हे नाथ ! जैसे सब नदियां समुद्र में एकत्र होजाती हैं, इसी प्रकार आप के मत में सब नय एक साथ हो जाते हैं । किन्तु आपका मत किसी भी नय में समावेश नहीं हो सकता । जेले कि समुद्र किसी एक नदी में नहीं समाता इसी कार सभी वादियों का सिद्धान्त तो जैन मत है, लेकिन सम्पूर्ण जैन मत किसी वादी के मत में नहीं है ।'
जिस प्रकार तीनों दान्तों के द्वारा सप्त नयों का स्वरूप दिखलाया गया है, उसी प्रकार सब पदार्थों में इन को घटा लेना चाहिये ।
इस प्रकार प्रदेशका दृष्टान्त यहां पूर्ण हुआ और नय प्रमाणका वर्णन भी यहां पूर्ण हुआ। अब इसके अनन्तर संख्या प्रमाण जानना चाहिये-
संख्या प्रमाण |
से किं तं संखष्पमाणे ? अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहांनामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखा श्रवम्मसंखा परिमाणसंखा जोगणसंखा गणणासंखा भावसंखा ।
से किं तं नामसंखा ? जस्स णं जीवस्स वा जाव, से तं नामसंखा ।
से किं तं ठवणसंखा ? जगणं कटुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा जाव से तंठवणसंखा । नामठवणारां को पइविसेसो ? नाम [प] श्रावकहियं ठवरणा इत्तरिया वा होजा श्रावकहिया वा होज्जा ।
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