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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
अर्थात् द्वीप समुद्रों का प्रमाण इसी गणना के अनुसार ग्रहण किया गया है । ( केवइयाणं भंते ! दीवसमुद्दा उद्धारेण परणत्ता ?) इस प्रकार श्री भगवान् के वचनों को सुन कर श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! कियत्प्रमाण द्वीप समुद्र उद्धार प्रमाण से प्रतिपादन किये गये हैं ? (योमा ! जावइया श्रद्धा इज्जाणं उद्धारसुष्टुमसागरोत्रमा उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उठारे पत्रत्ता, से तं सुतुमे उद्धारपदिश्रवमे से तं द्धारपि श्रोत्रमे ।) भगवान् ने उत्तर दिया कि भो गौतम ! यावत्प्रमारण ढाइ उद्धार सूक्ष्म सागरोपम के उद्धार समय हैं, तावत्प्रमाण उद्धार द्वीप समुद्र हैं, यही पूर्वोक्त सूक्ष्मोद्वापल्योपम है और इसी को पल्योपम कहते हैं ।
भावार्थ- सूक्ष्म उद्धारपल्य उसे कहते हैं जो प्राग्वत् के समान एक पत्य स्थापन किया गया है, अपि तु जो बालानों की कोटियों से भरा हुआ हो, फिर उन कोटियों में से एक २ कोटिके असंख्यात खंड कलित कर लिये जायँ जो कि दृष्टि की गहनता से श्रसंख्यात भाग प्रमाण हो, और सूक्ष्म पनक जीव की श्रवगाहना से असंख्यात गुणा हो, इस प्रकार उस पल्य को बालायों से भर दिया जाय, पुनः जिसे अग्नि दाह न कर सके तथा वायु अपहरण न कर सके, न ही उसको दुर्गंध पराभव कर सके और वह घनता युक्त भी हो, फिर
बालों का समय २ में एक २ खंड करके वह पल्य खाली कर दिया जाय, इस प्रकार जितने काल में वह पल्य खाली हो जाय उसको सूक्ष्म उद्धार पल्योपम कहते हैं । जब दश कोटा कोटि प्रमाण पल्य खाली हो जाय तब एक सूक्ष्मउद्धार सागर होता है । इसके प्रतिपाद करने का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि इसके द्वारा द्वीपसमुद्रादि का प्रमाण किया जाता है । इस प्रकार गुरु के वचनों को सुन कर शिष्य ने फिर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! उक्त प्रमाण से कितने द्वीप समुद्र हैं ? गुरु ने उत्तर दिया कि भो ! शिष्य ! उक्त प्रमाण से अर्द्ध तृतीय अढ़ाई २|| सागरों के समान द्वीप समुद्र हैं, अथवा २५ पच्चीस कोटा कोटि उद्धार पल्यों के तुल्य द्वीप समुद्र हैं, सो इसे ही उद्धारपल्य कहते हैं। अब इसके अनन्तर श्रद्धापल्य का वर्णन किया जाता है-
अथ श्रद्धा पल्य का विषय ।
से किं तं श्रद्धापविमे ? २ दुविहे पण ते तंजहा - सुमेय ववहारिए अ तत्थ णं जे से सहमे से ठप्पे, तत्थ
* निमोद के जीव ।
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