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[श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] छेदोपस्थापनीय चारित्र अवश्य होता है, और वह निरतिचार रूप होता है। यदि मूल गुण का घात न हो तो सातिचार रूप होता है। महाविदेह क्षेत्र में इसका प्रभाव ही है।
संयम के दोषों को दूर करने वाला परिहार विशुद्धिक चारित्र जानना चाहिये । जिसमें संक्लिष्ट भावों का परित्याग और असंक्लिष्ट भावों का प्रहण किया जाता है, जिसे कि नव साधु यथोक्त विधि से अष्टादश मास उक्त तप करते हैं उसको भी परिहार विशुद्धिक चारित्र कहते हैं । उक्त तप को जो साधु तप रहा हो, उसे 'निर्विश्यमान' और जो तप चुका हो, उसे 'निर्विष्टकायिक' कहते हैं।
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र वह है जो कि प्रतिपाती और अप्रतिपाती भेदों से युक्त हो।
यथाख्यात नामक चारित्र वह है जो कि यथार्थ पद का बोधक और शुद्ध क्रियानुष्ठान रूप होता है। यह चारित्र छद्मस्थ तथा केवली भगवान् दोनों ही को होता है । यही चारित्र गुण प्रमाण है। यही जीव गुण प्रमाण है और यही गुण प्रमाण है अर्थात् इनका वर्णन यहां समाप्त होता है। और इसके बाद नय प्रमाण का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है।
नयममागह।
[से किं तं नयप्पमाणे ? सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-णेगमे १, संगहे २, ववहारे ३, उज्जुसुए ४, सद्दे ५, समभिरूढे ६, एवंभूए ७।]
से किं तं नयप्पमाणे ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहांपत्थगदिटुंतेणं वसहिदिटुंतेणं पएसदिट्ठतेणं ।
से किं तं पत्थगदिद्रुतेणं ? से जहानामए केई पुरिसे परसु गहाय अडवीसमहुत्तो गच्छेज्जा, तं पासित्ता
*इसकी विशेष व्याख्या 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' 'भगवती' सूत्रसे जानना चाहिये । इस [कोष्ठक ] में दिये हुये पाठको अधिक पाठ जानना चाहिये ।
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