________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२००
[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] प्पमाणे) ® परिहारविशुद्धिक चारित्रगुणप्रमाण ( दुविहे पण्णत्ते, ) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ( तं जहा-) जैसे कि--(णिविसमाणए य) निविश्यमानक और (णिविट्ठ काइए श्रI) निर्विष्टकायिक । (सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे ) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र गुण प्रमाण (दुविहे पण्णत्ते,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा)
* परिहार विशुद्धिक तप उसे कहते हैं जो परिहार नाम का तप विशेष हो अथवा अणेपणादि दोषों से जिसकी शुद्धि हो । उसके दो भेद हैं-निविश्यमानक अर्थात् आसेव्यमान और निर्विष्टकायिक अर्थात् जिन्होंने उक्त तप को विशेषतया काया के द्वारा प्रासेवन किया हो । तथाकई एक का यह भी अभिप्राय है कि-जिन्हों ने पूर्व इस तप को अङ्गीकार किया हो उनके पास अथवा तीर्थंकरों के पास नव साधुओं का समुदाय उक्त तप को ग्रहण करता है जिनमें एक साधु कल्पस्थित सभी सामाचारी करता है, तथा चार साधु तप को ग्रहण करते हैं, जिनको परिहारिक कहते हैं, और शेष चार परस्पर वैयाकृत्य करने वाले होते हैं, जिनको अनुपरिहारिक कहते हैं । परिहारिक साधु गर्मी की ऋतु में जघन्य से चतुर्थ-१ उपवास; मध्य से पट-दो उपवास और उत्कृष्ट से अप्ट अथात तीन उपवास तथा शिशिर ऋतु में जघन्त से पट , मध्यम से अप्ट और उस्कृष्ट से दश । इसी प्रकार वर्षाकाल में जघन्य से अष्ट, मध्यम से दश और स्कृष्ट से द्वादश करते हैं ! शेष कल्पस्थित पांचों ही साधु अनुपरिहारिक नित्यभक्त होने से उपवास नहीं करते हैं। सिर्फ प्रायविल करते हैं और कुछ नहीं । यथा--"शेषास्तु कल्पस्थितानुपरिहारिकाः पश्चापि प्रायो नित्यभक्ता नोपवासं कुर्वन्ति, भक्त च पञ्चानामप्याचाम्लत्वमेव ।"
इसके पश्चात् परिहारिक साधु षट् मास पर्यन्त उक्त तप करके अनुपरिहारिक होते हैं, और अनुपरिहारिक परिहारिक होते हैं । जब तप करते हुए इनको छह महीने हो जायँ तब आठ जनोंमें से एक कल्पस्थित रहता है और शेष सात अनुचरता आश्रय ग्रहण करते हैं और छह महीने तक तप करते हैं । इस प्रकार अठारह महीने में सम्पूर्ण तप पूरा होता है । तप पूरा होने पर साधु फिर से उसीको या जिनकल्प को अङ्गीकार करे या गच्छ में पाजाय, ये तीनरास्ते हैं । यह चारित्र सिर्फ छेदोपस्थापनचारित्र वाले को होता है, दूसरों को नहीं । इस लियेजो इस तप को करके अनुपरिहारिकता या कल्पस्थितपना अङ्गीकार करता है उसो को परिहारविशुद्धिक निर्विष्टकायिक कहते हैं।
संसार के अन्दर पर्यटन, करना इसी का नाम सम्पराय-क्रोधादिकषाय है । अंश मात्र लोभ रह जाय उसी को सूचमसम्पराय कहते हैं । 'सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनति सम्परायः-- क्रोधादिकपायः लोभांशमात्राव शेषतया सूक्ष्मः संपरायो यत्र तत्सूक्ष्मसंपरायम् । अथवा-सूक्ष्मातुच्छः संपरायो यस्य तत् सूक्ष्म संपरायं संज्वलन लोभात्मकं दशमगुणस्थानधर्तिकमिति भावः।'
For Private and Personal Use Only