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[ उत्तरार्धम् ]
२१७ "दि जैसे (पंचण्हं गोटिप्राणं पुरिसाणं ) पांच गोष्ठिक पुरुषों की (केइ दव्यजाए) किंचित् द्रव्य जाति (सामण्णे भवइ,) सामान्य होती है, (तं जहा.) जैसे कि-हिरपणे वा सुवरणे वा धणे वा धरणे वा) हिरण्य या सोना या धन या धान्य इत्यादि, (ते जुत्तं वत्तु तहा) तो तुम्हारा वैसा कहना युक्त था कि (पंचगह पएसो,)* पांचों के प्रदेश हैं, (तं मा भणाहि.) इस लिये ऐसा मत कहो कि (पंचएह पएसो,) पांचों के प्रदेश हैं, लेकिन (भणाहिपंचविहो पएसो,) कहो कि-प्रदेश ४ पाँच प्रकार का है, (तं जहा-) जैसे कि-(धम्मपएसो अधम्मपएसो अागासपएसो जीवपएसो खंधपए सो ) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, आकाशास्तिकाय का प्रदेश, जीवास्तिकाय का प्रदेश और स्कन्ध का प्रदेश ।
(एवं वयंत वाहार) इस प्रकार कहते हुए व्यवहार नयको (उज्जुसुनो भाइ-)ऋजु सूत्र * कहता है कि-(जं भणसि-पंचविहे पए सो,) जो तू कहता है कि पाँच प्रकार के प्रदेश हैं, (तं न भवइ ,) वह नहीं होता है, (क. हा ?) क्यों ? (जइ ते) यदि तेरे मत में (पंचविहो पएसो) पांच प्रकार के प्रदेश हैं, तो (एवं ते एक को परसा) इस प्रकार तेरे मतसें एक २ प्रदेश ( पंचविहो ) पाँच प्रकार का होता है, (एवं ते पणवीसतिविहो) इस तरह तेरे मत से पच्चीस प्रकार का ( पएसो भवड, ) प्रदेश होता है, (तं मा भणाहि-) इसलिये ऐसा मत कहो कि-(पंचविही पएसो,) पांच प्रकार का प्रदेश है, लेकिन (भणाहि-) कहो कि (भइयव्वो पएसो) प्रदेश भिजनीय हैं। (सिय धम्मपएसो) धर्मास्तिकाय का प्रदेश हो (सिश्र अधम्मपएसो, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश हो (सिय आगासपएसो) आकाशास्तिकाय का प्रदेश हो, (सिय जीवपएसो) जीवास्तिकाय का प्रदेश हो (सिय खंधपएसो) या स्कन्ध का प्रदेश हो।
+ जैसे कि पांच गोष्टिक पुरुषों का किञ्चित् द्रव्य सोना-धान्य श्रादि सामान्य-साधारण होता है, उसी प्रकार यदि पांचों द्रव्यों के प्रदेश सामान्य-इकट्ठे हों तब संग्रह नय का कहना ठीक है कि 'पाँचों के प्रदेश हैं लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि पांचों के प्रदेश भिन्न २ हैं ।
x द्रव्य पाँच प्रकार के हैं और प्रदेश तदाश्रयभूत हैं इसलिये प्रदेश भी पांच प्रकार का कहना चाहिये।
* यह नय वर्तमान काल को ही मानता है, भूत और भविष्यत् काल को नहीं । इसलिये सभी पदार्थ अपने २ गुण स्वरूप हैं और पर गुण में नास्ति रूप हैं । स्वगुण वाले पदार्थ अपने ही गुण के बोधक हैं, पर गुण के नहीं ।
+ भाज्य, विभजनीय, ये एकार्थी हैं।
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