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[ उत्तरार्धम् ]
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भावार्थ - विकलेन्द्रियों के श्रदारिक शरीर दो तरह के होते हैं. जैसे कि और मुक्त | इनके बद्ध शरीर श्रसंख्येय काल चक्रों की समय की राशि के तुल्य तथा क्षेत्र से प्रतर के श्रसंख्यातवें भाग में आकाश प्रदेश की जितनी असंख्येयेणियां हैं, उनकी विष्कम्भसूचि के तुल्य हैं, जो कि असंख्येय योजन कोटाकोटि प्रमाण हो ।
सत्कश्पनया असंख्येय प्रकाश प्रदेशों की एक भणि होती है, लेकिन कल्पना से यदि ६५५३६ प्रदेश कल्पित कर लिये जायं तो इसका प्रथम वर्गमूल २५६, द्वितीय १६, तृतीय ४, और चतुर्थ २ है । इनका योग करने से २७८ होते हैं । सत्कल्पना से असंख्येय श्राकाश प्रदेश होते हैं । इस लिये इतने आकाश प्रदेशों की एक विष्कम्भसूचि जानना चाहिये ।
अथवा बद्ध श्रदारिक शरीरों से यदि प्रतर के प्रदेश अपहरण किये जायं तो असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के काल से अपहरण होते हैं, परन्तु क्षेत्र से प्रमाण गुल प्रतर का श्रावलिका के असंख्येय भाग के अंश से यदि उस के प्रदेश अपहरण करें तो असंख्येय काल चक्र लग जाते हैं । इसी तरह यदि उक्त प्रमाण से प्रतर में स्थापन करें तब वह पूर्ण होती है, अतः इतने ही बद्ध शरीर होते हैं । मुक्त शरीर पूर्ववत् जानना । वैक्रिय और आहारक शरीर तो इनके होते ही नहीं, लेकिन मुक्त पूर्ववत् जानना चाहिये । तैजस और कार्मण शरीरों का वर्णन, जैसे श्रदारिक शरीरों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार जानना चाहिये |
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पञ्च ेन्द्रिय जीवों व श्रदारिक शरीर तो प्राग्वत् हैं, लेकिन बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्य काल चक्रों से अपहरण किये जाते हैं। क्षेत्र से प्रतर के असंयेय भाग में जितनी श्राकाश की असंख्येय श्रेणियां हैं, उनकी विष्कम्भसूचि करने से प्रथम वर्गमूल के असंख्येय भाग मात्र में होते हैं, अर्थात् प्रथम वर्ग मूल के असंख्यातवें में भाग में होते हैं। मुक्त पूर्ववत् हैं । पुनः आहारक शरीर जैसे द्वीन्द्रियों के वर्णन किये गये हैं, उसी प्रकार जानना चाहिये । तैजस श्रीर कार्मण शरीरों की व्याख्या जैसे पूर्व श्रदारिक शरीरों की प्रतिपादन की गई है, उसी प्रकार जानना चाहिये ।
अब इसके अनन्तर मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के शरीरों के विषय में कहते हैं
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