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[श्रीमदनुयोगदारसूत्रम् ] हैं। 'साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः । जिस स्थान में साध्य के अभाव को दिखा कर साधन का अभाव दिखाया जावे, उसे व्यतिरेकदृष्टान्त जानना चाहिये।
__ शेषवत् अनुमान प्रमाण पांच प्रकार का है, जैसे कि-कार्य से १, कारण से २, गुण से ३, अवयव से ४, और श्राश्रय से ५।
कार्य होते हुए जो कारण का ज्ञान होता है, उसे कार्यानुमान कहते हैं, जैसे कि- शंख, भेरी, वृषभ, मयूर, अश्व, हस्ति, इत्यादि । जब इनके शब्द होते हैं, तो शीघ्र ही अनुभव हो जाता है कि अमुक स्थान पर अमुक का शब्द हो रहा है, इत्यादि।
जिन कारणों से कार्यका ज्ञान होता है उसे कारणानुमान कहते हैं । जैसे कि तन्तु पट के कारण हैं, पट तन्तुओं का कारण नहीं है । इसी प्रकार वीरण मंचा का कारण है, लेकिन मंचा वीरणों का कारण नहीं है । मिट्टी का पिण्ड घट का कारण है लेकिन *घट मिट्टी का कारण नहीं है।
गुण के ज्ञान से जो गुणी का ज्ञान होता है, उसे गुणानुमान कहते हैं, जैसे कि-सुवर्ण की परीक्षा कसोटी से, पुष्पों की गन्ध से, सैन्धवादि निमक की रस से, मदिग की आस्वादन से, वस्त्र की स्पर्श-छूने से होती।
जिन अवयवों से अवयवी को ज्ञान हो, वह अवयवानुमान है। जैसे किशृङ्गों से महिष का, शिखा से मुर्गे का, दान्तों से हाथी का, दाढों से सूअर का, खुरों से अश्व का, नखों से व्याघ्र का, वालाग्रों से गाय का, पूछ से वानर का, द्विपद से मनुष्यादि का, चार पैर से गौ आदि का, बहुत से पैरों से कानख.
अत्राह-ननु यदा कश्चिन्निपुणः पटभावेन संयुक्तानपि तन्तॄन् क्रमेण वियोजयति तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं भवत्येव, नैव, सत्वेनोपयोगाभावात, यदेव हि लब्धसत्ताकं सत् स्वस्थितिभावेन कार्यमुपकुरुते तदेव तस्य कारणत्वेनोपश्यिते, यथा मृत्तिण्डो घटस्य, ये तु तन्तुवियोगतऽभावी भवतः पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, न हि ज्वराभावेन भवत पारोगिता सुखस्य ज्वरः कारणमिति शक्यते वक्तुम, यद्य वं पटेऽप्युत्सद्यमाने तन्तवोऽभावी भव न्तीति तेऽपि तत्कारणं न स्युरिति चेत्, नैवं, तन्तुपरिणाम रूप एव हि पटः, यदि च तन्तवः सर्वथाऽभावी भवेयुस्तदा मृगावे घटस्यैव सर्वथैवोपलब्धिर्न स्यात, तस्मात्पटकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सत्त्वे नोपयोगात्ते पटस्य कारणमुच्यन्ते पटवियोजनकाले त्वेकैकतन्त्रवस्थायां पटो नोपलभ्यते, अतस्तत्र सत्वेनोपयोगाभावान्नासौ तेषां कारणए।
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