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[ उत्तरार्धम् ]
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अर्थात् जब उसके लक्षणों से ठीक निश्चय हुआ तब उसको साध्य का ज्ञान साधनों द्वारा यथार्थ हो गया। इसी को पूर्ववत् अनुमान कहते हैं ।
हेतु के तीन भेद हैं, जैसे कि पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व विपक्ष असत्व । लेकिन यहां पर एक ही प्रकार से माना गया है । इसका कारण यह है कि मुख्यतयो हेतु एक ही प्रकार का होता है । शिष्यों के बोध के वास्ते प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, निगमन और उपनय भी वर्णन किये जाते हैं, तथा हि- 'बालव्युत्पत्यर्थं तत्रोपयोगे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ।”
बालकों को समझाने के लिये उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का भी प्रयोग करना चाहिये । वाद-विवाद में इनकी आवश्यकता नहीं है । 'दृष्टान्तो द्र'धा, अन्वयतिरेकभेदात् ' दृष्टान्त के दो भेद हैं, श्रन्वय और व्यतिरेक | 'साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदश्यंते सोऽन्वयदृष्टान्तः ।' जिस स्थान में साध्य के साथ साधन की व्याप्ति प्रदर्शित की जाय उसे अन्वयदृष्टान्त कहते
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* उक्तञ्च न्यायदीपिकायाम्“ वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतृ द्वाववयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतृदा हदणोपनयाश्चत्वारः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पचेति यथायोग्यं परिपाटी ।"
तदुक्तं कुपाश्नन्दिभट्टारकैः, 'प्रयोग परिपाटी तु प्रतिपायानुरोधत: । इति, तदेवं प्रतिज्ञादिरूपात्त परोपदेशादन्नं परार्थानुमानम् । तदुक्तम्
'परोपदेश सापेक्षं साधनात् साध्यवेदनम् । श्रोतुयंजायते सा हि परार्थानुमतिर्मता ॥ १ ॥ इति । तथा च - 'स्वार्थं परार्थं चेति द्विविधमनुमानम् । साध्याविनाभावनिश्चयैकलक्षणा तोरुत्पयते ।'
दीपिका में कहा है कि वीतरागकथा के अन्तर्गत शिष्य के श्राशयानुसार यथायोग्य प्रज्ञा और हेतु, इन दो अवयवों का प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, इन तीन श्रत्रयवों का प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय, इन चार अवयवों का अथवा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, इन पांचों वों का प्रयोजन होता है ।'
कुमारनन्दिभट्टारक ने कहा है - " अवयव करने की शैली तो आशयानुसार होती है।” तथा - परार्थानुमान प्रतिज्ञादि रूप दूसरे के उपदेश से उत्पन्न होते हैं । कहा भी है- "परोपदेश सुन कर जिस श्रोताको साधन से साध्य का ज्ञान होता है, उसीको परार्थानुमान कहते हैं" उसी तरह यह भी कहा है कि- स्वार्थ और पदार्थ दोनों ही प्रकार का अनुमान हेतु से उत्पन्न होता है, जिसका कि साध्य के बिना न होना निश्चित है ।
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