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[ उत्तरार्धम्] (अहवा ) अथवा (आगमे) आगम (तिविहे पण्णत्ते, ) तोन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि-(सुत्तागमे) * सूत्रागम (अत्यागमे ) अर्थागम और (तदुभयागमे ) तदुभय आगम अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनों सहित ।
(अहवा) या आगमे) आगम (तिविहे पएणत्ते, ) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (जहा.) जैसे कि--(अत्तागमे) आत्मागम (अणंतरागमे ) अनन्तरागम और (परंपरागमे,) परम्परागम । (तित्थगराणं अत्थस्स) तीर्थकरों के अर्थ को ज्ञान (अत्तागमे)
+ आत्मागम जानना चाहिये, तथा--( गणहराणं सुत्तस्स ) गणधरों के सूत्र का ज्ञान (अत्तागमे) आत्मागम जानना चाहिये, और (अस्थस्स ४ अणंतरागमे) अर्थ का अनन्तरागम होता है, तथा (गणहरसीप्ताणं) गणधरों के शिष्यों के (सुत्तस्स + अणंतरागमे) सूत्र के ज्ञान को अनन्तरागम कहते हैं, और ( अत्यस्स परंपरागमे,) अर्थ का परम्परागम होता है, (तेणं परं) तत्पश्चात् सुत्तस्सवि अत्थस्सवि) सूत्र और अर्थ दोनों ही का (णो. अत्तागम) आत्मागम भी नहीं है और (णो अणंतरागमे) अनन्तरागम भी नहीं है सिर्फ (परंपरागमे,) परम्परागम जानना चाहिये, (से तं लोगुरु रिए,) यही लोकोत्तरिक है और (से तं आगमे,) यही आगम है, तथा (से तं णाणगुणप्पमाणे ।) इसी को ज्ञानगुणप्रमाण जानना चाहिये।
माताधर्मकथा ५, उपासकदशा ६, अन्तकृद्दशा ७, अनुत्तरोपपातिक दशा ८, प्रश्नव्याकरण ६,
और विषाकसूत्र १० । इत्यादि का ग्रहण करना चाहिये, शेष दो के नाम मूल पाठ में आ ही गये हैं। इन्हीं के समुदाय को गणिपिटक कहते हैं ।
+ अर्थात् सिर्फ मूल पाठरूप । मूल सूत्र का सिर्फ अर्थ ।
+क्योंकि वे केवलज्ञान से स्वयमेव पदाथों को जानते हैं। इसलिये उनके अर्थ को आत्मागम कहते हैं।
४ गणधर महाराज सूत्रों की स्वयमेव रचना कहते हैं, इसलिये उनके रचे हुए सूत्रों को सूत्रागम कहते हैं । अागम में भी कहा है-'अस्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंति गणहरा निउण" अर्थात् अहंदगवान् अर्थ कहते हैं, निपुण गणधर महाराज सूत्र को गूथते है'।
क्योंकि गणधर महाराज कोई भी अन्तर बिना तर्थंकरों से अर्थं सीखते हैं, इस लिये अर्थ से ज्ञान को अनन्तरागम जानना चाहिये ।
अर्थात् शिष्य, गणधरों के पास विना अन्तर अध्ययन करते हैं।
* क्योंकि तीर्थंकरों से अर्थ का ज्ञान गणधरों को प्राप्त हुआ, और गणधरों से उनके शिष्यों को अवगत हुआ, अर्थात परम्परा से प्राप्त हुआ, इसलिये इसे परम्परागम कहते हैं।
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