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[ उत्तरार्धम् ]
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आत्मा का निज गुण हो उसे दर्शन गुणप्रमाण कहते हैं । और वह (चउब्बिहे पण ते) चार प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - (चक्खुदंसण गुणप्पमाणे) चक्षुर्दर्शनगुणप्रमाण ( अचक्खुदंसण गुणप्पमागी ) अचक्षुर्द र्शन गुणप्रमाण ( श्रहिसणगुणप्पमाणे ) अवधिदर्शन गुणप्रमाण और (केवल दस गुणप्पमाणे 1) केवलदर्शनगुणप्रमाण | इनका भिन्न २ स्वरूप निम्नानुसार जानना चाहिये
(† चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स ) चक्षुर्दर्शनी का चक्षुर्दर्शन ( धडपड कराइए ) घट, पट, कट-मंचा, रथादिक ( दबे ) द्रव्यों में होता है (चक्खुर्दणं श्रचक्खुदसणि'ए) अचक्षुर्दर्शनी का x अचतुर्दर्शन (श्रयभावे) श्रात्मभाव में होता है, (ओहिदंसणं श्रोहिदंसणिस्स) अवधिदर्शनवाले का अवधिदर्शन (सव्वरुविदव्वेसु) सभी रूपी द्रव्यों में होता है, ( न पुण सव्वपज्जवेसु) सभी पर्यायों में नहीं होता । ( + केवलदंसणं केवल दंसणिस्स ) (केवलदर्शनी का केवलदर्शन ( सव्वदव्वेसु अ ) सब द्रव्य और (सन्त्रपजवेसु श्र) सभी पर्यायों में होता है, (से तं दंसण गुणप्पमाणे ।) यही दर्शन गुणप्रमाण है ।
भावार्थ - - दर्शन गुणप्रमाण चार प्रकार का है, जैसे कि - चतुर्दर्शनगुण प्रमाण, अचक्षु दर्शन गुणप्रमाण, अवधिदर्शन गुणप्रमाण और केवलदर्शन गुण
प्रमाण ।
“जं सामन्नरगहणं, भावारणं नेव कट्ट, मागारं । श्रविसेसिज थे, दंसणमिइ बुच्चए समए ॥१॥" तदेवाननो गुणः स एव प्रमाणं दर्शन गुणप्रमाणम् । । चक्षुर्दर्शन उसे कहते हैं जो भावचक्षुरिन्द्रिय havan से और द्रव्येन्द्रिय के अनुपात से | क्योंकि चतुर्दर्शनी जीव सामान्यतया
घटादि द्रव्यों को भली प्रकार से देखता व जानता 1
X चक्षुरिन्द्रियको छोड़कर शेष चार इन्द्रिय और मन इनसे श्रचतुर्दर्शन होता है, तथा भाव - चतुरिन्द्रिय के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के अनुपधात से प्रगट होता है 1 + क्योंकि चक्षु श्रमाप्यकारी हैं तथा श्रोत्रादि प्राप्यकारी हैं । श्रागम में भी कहा है-'पुढं सुइ सदं रूवं पुरा पासई श्रपुट्ठे तु ।'
* जिन कमों के क्षय से अवधिदर्शन प्राप्त हो, इसे श्रवधदर्शन कहते हैं । श्रवधिदर्शन को इसलिये सामान्य माना गया है कि दर्शन सामान्यावबोध रूप होता है और ज्ञान विशेष रूप होता है।
+ केवलदर्शनावरण कर्मके क्षय होने से केवलदर्शन उत्पन्न होता है, जो कि सकल पदार्थों को देखता है। क्योंकि वे सर्वदर्शी हैं, इस लिये रूपी रूपी सभी द्रव्यों में केवलदर्शन होता है । तथा मनः पर्यायज्ञान सदैव ही विशेष ग्रहण करने वाला होता है, सामान्य को नहीं । इसलिये मनःपर्यायदर्शन नहीं होता ।
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