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[ उत्तरार्धम् ] ओरालिए वेडव्विए आहारए त अए कम्मए । वाणमंतरा जोतिसिणं माणणं जहा नेरइयाणं ।
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पदार्थ - ( इविहा गं भंते ! सीग पण्णत्ता ?) हे भगवन ! शरीर कितने प्रकार मे प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा ! पंच सरीरा पत्ता, तंहा-) हे गौतम ! पांच प्रकार के शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (ओरालिए) देव तथा नारकीय जीवों को छोड़कर इसी शरीर को तोर्थंकर तथा गणाधरों के धारण करने से अथवा शेष शरीरों को अपेक्षा इसकी एक सहस्र योजन से कुछ अधिक प्रमाण अवगाहना होने से इसको श्रदारिक शरीर कहते हैं, तथा वेठ) वैक्रिय शरीर उसे कहते हैं-जो नाना प्रकार की विशिष्ट क्रिया वा विक्रिया के द्वारा नाना प्रकार के रूप धारण करें । ( श्राहार) किसी बात की शंका होने पर केवली भगवान् के पास निर्णय के लिये भेजने के वास्तं चर्तुदश पूर्वविद् मुनि जिस शरीर को रचते हैं और लौटने पर उसके द्वारा अर्थी को धारण करते हैं उसे आहारक शरीर कहते हैं, (नेए ) रसादि आहार को पाचन करने वाला पुनः तेजोलेश्या की उत्पत्ति का कारण भूत, ऊष्ण रूप पुद्गलों का विकार तैजस शरीर होता है, पुनः (कम्मए) जो आठ प्रकार कर्मों के समूह से जनित दारिकादि शरीरों का कारण भूत तथा भवान्तर में नाना प्रकार के फलों का दाता उसे कार्मण शरीर कहते हैं । इस तरह अनुक्रम से पांचों शरीर का दान किया गया है, किन्तु विशेष इतना ही है कि औदारिक शरीर हव से स्वर तथा दीर्घ से दीर्घ तर भी होता है, क्योंकि निगोदके जोवों का शरीर खतर और समुद्र के कमल नाल का शरीर दीर्घतर होता है, इसी कारण प्रथम उसका ग्रहण किया गया है । अत्र चौवीस दण्डकों के शरीरों का विषय कहते हैं - (गोर इ.स भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! नारकियों के कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं (गोयमा ! तो सरीरा पश्यत्त, तं जहा-) हे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये है जैसे कि - (विए) वैक्रिय (तेर) तैजस और (कम्पए) कार्मण, ( अमरकुमाराणं भंते ! कसरी पत्ता ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने शरीर कथन किये गये हैं ? (गोयमा ! ती सग परणत्ता, तं जहा-) हे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि - (वेत्रिए ते अए कम्मए) वैक्रिय तैजस और कार्मण, (एवं तिगिण २ एए चैव सरीरा) इसो प्रकार ये तीन २ शरीरजो पूर्व कहे गये हैं वे ( जात्र थरिण्यकुमारां भाणियव्या ।) यावत् स्तनित्कुमारों क े भी जानना चाहिये, अथात् स्तनिनकुमार तक ये तीन शरीर होते हैं । (पुढविकाइयाणं भंते! कइ सी एण्णता ?) हे भगवन् ! पृथिवी