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[ उत्तरार्धम् ]
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और ( मुक ेललया ) मुक्त वैक्रिय शरीर, (जहा श्रोहियाणं श्रोरा लियसारांश ) जैसे औधिक दारिक शरीर होते हैं, ( तहा) उसी प्रकार (भाणियव्या ) कहना चाहिये, (आहारगसरीराव) आहारक शरीर भी ( एवं चेत्र) इसो प्रकार (भाणिया ।) कहना चाहिये (तेगकम्मसरीरा) तेजस और कार्मण शरोर ( जहा एएस चेत्र ) जैसे इनके (ओरालि यसरीरा ) - औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भाणियत्रा, ) उसी प्रकार कहना चाहिये । जहा पुढवि काइयाणं) जैसे पृथिवोकाय के शरीर होते हैं, ( एवं ) इसी प्रकार ( श्राकाश्याणं सेकाइ या य ) काय और अग्निकाय के ( सव्वसरीश भाणिव्वा । ) सभी शरीर कहने चाहिये | (बाउकाइयाणं भंते !) हे भगवन्! वायु कायके (कंवइया) कितने (ओरालियसरी पत्ता ?) प्रकार से औदारिक शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयमा !) हे गौतम! (दुविहा पणत्ता ) दो प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, (तंजह -) जैसे कि( बदलाय मुक्केल्लया य) बद्ध और मुक्त, (जहा पुढाकाइया) जैसे पृथिवीकायिकों के ( श्री लिमसरीश ) औदारिक शरीर होते हैं ( तहा भारिया ) उसी प्रकार कहना चाहिये, (वाकाइयाणं ते!) हे भगवन् ! + वायुकायिकों के (कंवइया) कितने ( वेडत्रियसरीश पण्णत्ता ? ) वैक्रिय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? ( गोयमा ! ) हे गौतम !
+ अन्य प्रकार से भी बायु कायके बद्ध वैक्रिय शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे किचतुर्विधा वायवः सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च वादरा अपयशाः पर्याप्ताश्च तत्राराशित्रये प्रत्येकं ते असंख्येयोकाकाशप्रदेशप्रमाण वै. कयलब्धिशून्याश्च, बादरपर्याप्तास्तु सर्वेऽपि प्रतरासंख्येयभागवर्तिन एव न शेषाः येषामपि च वैकिलब्धिस्तेयपि मध्येऽसंख्यास भागवर्तिन एव बद्दवैक्रियशरीराः पृच्छासमये प्राप्यन्ते नापरे, तो वयमन्येवैषां बद्दवैकियशरीराणि भवन्ति नाविकानीति, श्रत्र केचिन्मन्यन्ते ।
ये केचन वान्ति वायवस्ते सर्वेऽपि वैकियशरीरे वर्तन्ते, तदन्तरेण तेषां चेष्टाया एवाभावात, सच न घटते, यतः सर्वस्मिन्नपि लोके यत्र कचित शुपिरं तत्र सर्वत्र चला वायवो नियमात् सन्त्येव, यदि च ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरिणः स्युस्तदा बडवैक्रियशरीराणि प्रभूतानि प्राप्नुवन्ति न तु यथोक्तमानान्येवेति, तस्मादवैक्रियशरीरिणोऽपि वान्ति वायवः, उक्त च
" श्रथ गं भंते! ईसि पुरे वाया पच्छावाया मन्दवाया महावाया वायंति ? हंता श्रत्थि, कया णं भंते ! जाव वायन्ति ? गोयमा ! जया गं वाड्याए आदारियं शेयर, जयागं जाव वाउयाए उत्तरियं यई, जयाणं वाउकुमारा वाउकुमारीश्रो वा अप्पणी वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्ठाए उदीरंति, तया गं ईसि जाव वायंति ।"
'श्राहारियं रीय' त्ति री रीतिः स्वभाव इत्यर्थः, तत्यानतिक्रमेण यथा रीतं रीयते
गच्छति यदा स्वाभाविकौदारिकशरीरगत्या गच्छतीत्यर्थः, 'उत्तर किरिय' ति उत्तरा - उत्तर
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