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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ]
(तत्थ एण ं चोग्रए परण्यगं एवंववासी ) उक्त समास को सुन कर शिष्य ने ऐसा कहा कि हे भगवन् ! (अस्थि णं तस्स पल्लम्स आगासपएसा जेण तहिं वालग्गेहि अणा कुरणा ? ) क्या उस पल्य के आकाश प्रदेश हैं जो कि उन वालानों से अस्पर्शित हैं ? (हंता श्रस्थि) हाँ-हैं इसमें किंचित् भी संदेह न करना चाहिये, ( जहा को दितो ?) इसका कोई दृष्टान्त भी है ? क्योकि वह कूआ घन रूप वालायों से भरा गया है (से जहानामए) जैसेकि (कोट ए सिया कोहंडा भरिए,) एक कोई कोष्ठक — कोठा हो जो कि कुष्मांडों के फलों से भरा हुआ हो ( तत्था माउलिंगा पक्खित्ता ) फिर उसमें मातुलिंग-बोज पूरक डाले अर्थात् उसे स्थूल दृष्टि से निश्चय हुआ कि कुष्मांडों के भरने से यह कोष्ठक ठोक तो भर गया है किन्तु उसमें छिद्र देखने से मालूम हुआ कि फल और भी प्रवेश हो सकते हैं, तो उसने मातुलिंग याने बीज पूरक नामक फल डाले, (तेऽवि माया) वे भी उसमें प्रविष्ट होगये, इसी प्रकार (तत्य बिल्ला पक्वित्ता, तेऽवि माया,) किर उसमें बिल्व डाले वे भी समा गये (त्य श्रमलगा पक्वित्ता तेऽवि माया,) फिर आंवले
वे भी समा गये (तत्थ ए बयरा पक्वित्ता तेवि माया) फिर वदरी फल डाले वे भी प्रविष्ट होगये, पश्चात् (तत्थ गण चणना पक्खित्ता तेऽवि माया) चने-छोले डाले वे भो समा गये ( मुग्गा कित्ता तेवि मारा ) तदनन्तर मूंग प्रक्षेप किये वे भा प्रविष्ट हो गये, (तत्ध सरिसा पविता ते माया ) फिर सर्षप सम्सी डाले वे भी समा गये, (तथ गंगवालु पविना साऽवि माया ) फिर उसमें गंगा नदी को बालुका डाली वह भी समा गई (स्वामेव एए दिते) इसी प्रकार इस दृष्टान्त से
( श्रत्थितम पल्स गापा ) उस पल्य के आकाश प्रदेश हैं (जे तेहि बालग्गेहिं श्रणाकुण्णा, ) जिससे कि वे वाला अस्पर्शित हैं क्योंकि वे अतीव सूक्ष्म हैं, इसलिये असंख्यात आकाश प्रदेश भी अस्पृष्ट हैं, जैसे अतीव घन रूप स्तम्भ में कीलक समा जाता है उसी प्रकार उस पल्य में भी अस्पृष्ट आकाश प्रदेश विद्यमान हैं ।
(एएसिं पल्लां कोडाकोडी भवेज दसगुणिया 1 )
तं हुमन्स खेत्तसागरोत्रमम्स एरास्स भवे परीमाणं |१|
इन पल्यों को दश कोटा कोटि गुणा करने से एक सूक्ष्म क्षेत्रसोगरोपम का परिमाण होता है ॥ १ ॥ ( एएहिं सुहुमेहिं खेत्तपलिओमसागरीवमेहिं किं पश्रयणं ? ) हे भगवन् ! इन सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम के प्रतिपादन करने का क्या प्रयोजन है ? (एएहिं सुहुमेहिं पलिप श्रोषमसागरोवमेहिं दिट्टिवाएं दव्या मत्रिजति । ) इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सागरोपम से दृष्टि वाद में जो द्रव्य वर्णन किये गये हैं उनकी गणना इससे को जाती है अर्थात् इनसे दृष्टि वाद के द्रव्य गिने जाते हैं ।
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