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[ उत्तरार्धम् ] से असंख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण एक 'श्रेणि' होती है, (सेढी सेढीए गुरिणया पयर) श्रेणि को श्रेणि के साथ गुणा करने से 'प्रतगंगुल' होता है, और (पया से हीए गुणीयं लोगो) प्रतरांगुल को श्रेणि के साथ गुणा करने से एक 'लोक' होता है । वह लोक चौदह रज्जु प्रमाण होता है । स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्व से पश्चिम तक के विस्तार को एक रज्जु कहते हैं । सोइसी संवे न रण लोग गुणिया संखे ना लोगा) संख्यात लोक से गुणाकार करने पर संख्यात लोक होता है, (असं वे ज रणं लागो गुणिग्रो असंखेजा लागा) असंपात लोक से गुगा करने पर असंख्यात लोक होता है (अणतेण लोगो गुणिग्रो अणता लोगा) एक लोक का अनंत लोकों के साथ गणा करने से अनंत लोक होता है अर्थात् लोक अनंत है । (एएसि णं सेढिअंगुल परंतुन वणं हार कयरे कयरहितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा) इन श्रेगि-अंगुल, प्रतरांगल और घनांगलों का परस्पर किस २ के साथ अल्प, बहुत्व, तुल्य और विशेषाधिक भाव है अर्थात् परस्पर न्यूनाधिक कौन से अंल हैं ? (सच योवे सेदिय एले) सत्र से स्तोक छोटा श्रेणि-अंगुन होता है, (
पलं असंखेज पुणे) श्रेणि-अंगुल से प्रतरांगुल असंख्यात गुणाधिक होता है और (घरगुले असं वे जहणे) प्रतरांगुल से घणांगुल भी असंख्यात गुणाधिक होता है, (से तं पाणगुल से तं विभा. निप्फरणे) सो यही प्रमाणांगुल है और यहो विभाग निष्पन्न नामक भेद है, ( से तं खेतप्पमाणे ) सो यही क्षेत्र प्रमाण है अर्थात् उक्त अंगुलियों के द्वारा ही सर्व प्रकार से क्षेत्रों का प्रमाण किया जाता है।
___ भावार्थ-प्रमाणांगुल उत्सेधांगुल से १००० गुणाधिक है । इस प्रकार सूत्र में कहा गया है। श्रीमान् भगवान् वर्द्धमान स्वामी की एक अंगुल के प्रमाण में उत्सेधांगुल दो होते हैं । अनादि पदार्थों का प्रमाण इसी अंगुल के द्वारा किया जोता है और इस अंगुल के भी पूर्ववत् पाद, हाथ, धनु, कोश, योजन
आदि जान लेने चाहिये । फिर उत्सेधांगुल धणांगुलों का अल्प-बहुत्व भी प्राग्वत् ही कथन किया गया है । वृत्ति में इस अंगुल का निम्न प्रकार से स्वरूप प्रतिपादन किया गया है, इस के अनन्तर प्रमाणांगुल का विवरण किया जाता है । उत्सेधांगुल से १००० गुणाधिक प्रमाणांगुल होत है। परम प्रकर्ष रूप प्रमाण को जो अंगुल प्राप्त हो, उसे 'प्रमाणांगुल' कहते हैं । अथवा समस्त लोकव्यवहारादि और राज्यस्थिति आदि का जिस से प्रमाण किया जाय तथा जिससे बृहत्तर अन्य कोई अंगुल न हो, उसे 'प्रमाणांगुल' कहते हैं, अथवा लौकिक सर्व व्यवहार के दर्शक प्रमाण भूत तथा इस अवसर्पिणी काल में प्रथम श्री. युगादि देव श्रीऋषभनाथ भगवान् के अंगुल और उनके सुपुत्र श्रीभरत चत्र!
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