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[ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पी के अंगुल को भी 'प्रमाणांगुल' कहते हैं । 'काकणी' रत्न के छह तल, बारह अंश और पाठ कौने होते हैं । 'अहिरण' रत्न के सदृश उस का आकार होता है। और वह प्रत्येक चतुरन्त चक्रवर्ती राजा के पास होता है अन्य अन्य काल में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती के काकणी रत्न को तुल्य कहने के लिये 'एक' शब्द का ग्रहण किया गया है । तथा निरुपचरित 'राज' शब्द का विषय जानने के लिये राज' शब्द का ग्रहण किया गया है। तीन दिशाओं में समुद्र तक तथा चौथी दिशा में हैमवंत पर्वत पर्यन्त सामान्य रूप से अपने चक्र के द्वारा पृथ्वी को साधन करने वाले को 'चतुरन्त चक्रवर्ती' कहते हैं । काकणी रत्न को प्रमाण इस प्रकार है। __चार मधुर तृण फल का एक श्वेत 'सर्षप' होता है । सोलह श्वेत सर्षप का एक 'धान्य माष फल' होता है । चार धान्य माष फलकी एक 'गुजा' होती है। पांच गुंजा का एक 'कर्ममाप' होता है। सौलह कर्ममाषक का एक 'सुवर्ण' और पाठ सुवर्ण को एक 'काकणी रत्न' होता है । ये मधुर तृण फलादि भरत चक्रवर्ती के समय के ग्रहण किये गये हैं । अन्यथा काल के भेद से इनका न्यूनाधिक होना संभव है । इसी कारण से समस्त चक्रवर्तियों के काकणी रत्न तुल्य नहीं होते । काकणी रत्न चारों दिशाओं तथा अर्द्ध अधो दिशाओं में होता. हैं । इसलिये इसके षः तल और बारह अंश होते हैं । ऊर्द्ध वा अधो दिशाओं में चार २ कोण भव होते हैं । अतः इसके पाठ कोण हैं । इसी कारण से इसे 'अष्टकर्णिका' भी कहा जाता है। इसका संस्थान अहिरण के श्राकार जैसा प्रतिपादन किया गया है। काकणी रत्न की एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण चौड़ी है । इसी प्रकार शेष चार अंश भी एक उत्सेधांगुल प्रमाण होते हैं । इसका चतु. रंश, आयाम तथा विष्कंभ प्रत्येक उत्सेधांगुल प्रमाण होता है। किसी २ ग्रन्था में इस प्रकार भी कहा गया है कि चतुरंगुल प्रमाण सुवर्ण, काकणी रत्न जानना' चाहिये । यह किसी २ का मत है । निश्चित मत सर्वच जाने । प्रत्येक उत्सेधांगुल भगवान् वर्द्धमानस्वामीजी के अ‘गुल के बराबर होता है । यथा -
श्रीवर्द्धमानस्वामी सात हस्त प्रमाण ऊंचे थे। एक २ हाथ चौबीस अंगुल प्रमाण होता है । इस हिसाबसे भगवान् एकसौ अरसठ उत्सेधांगुल प्रमाण हुए। और मतान्तर अपेक्षा अपने हाथों द्वारा नापने से साढ़े तीन हाथ अर्थात् चौरासी उत्सेधांगुल प्रमाण हुए । इस तरह से एक उत्सेधांगुल, भगवान् वर्द्धमान स्वामी:
* "चरंगुलर पमाणा"।
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