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अनेकान्त
वर्ष १५ सकतीं इसलिए माशापरादि ने उसे गृहस्थों के लिए तीन राजवात्तिक में विशेष विकल्प उठाये हैं वे सब मुनियों से कोटि से ही विहित किया है। इस तरह व्रती श्रावकों के ही सम्बन्ध रखते हैं जिन सब से यह स्पष्ट हो जाता है रात्रिभोजन त्याग में चारों प्रकार के आहार का त्याग कि-मुनिधर्म को लक्ष्य करके ही रात्रि भोजन विरमण बताने में कोई खटकने जैसी बात नहीं है वह समुचित का आलोकितपानभोजन नाम की भावना में अन्तर्भाव ही है।
किया गया है श्रावक धर्म अथवा उक्त छठे अणुव्रत को इसके सिवा अगर (गृह विरत या छठी प्रतिमाधारी) लक्ष्य करके नहीं। श्रावक और मुनि का रात्रि भोजन त्याग एक कोटि का यहां मैं अपने पाठकों पर इतना और प्रकट किए देता भी मान लिया जाय तो कोई आपत्ति या बाधा जैसी बात हूँ कि-श्री विद्यानन्द आचार्य ने श्लोक वार्तिक में इस नहीं है। क्योंकि जब साधारण श्रावक तक का सम्यग्दर्शन रात्रि भोजन-त्याग को (छठा अणुव्रत, नही कहा है किन्तु और सातवीं प्रतिमा वाले गृह विरत श्रावक का ब्रह्मचर्य रात्रि भोजन विरति इसनाम से ही प्रतिपादन किया है और मुनि के सम्यग्दर्शन और ब्रह्मचर्य के समकक्ष हो सकता उसे उन्हीं विकल्पों के साथ आलोकितपानभोजन भावना में है तो रात्रि भोजनत्याग के एक कोटि का होने में क्या अन्तर्भूत किया है इससे मालूम होता है कि-विद्यानन्द बाधा है ? अगर यह कहा जाय कि-सम्यग्दर्शन और प्राचार्य की दृष्टि श्री पूज्यपाद और अकलंक देव की उस ब्रह्मचर्य एक कोटि का होते भी मुनि के संयम की प्रकर्षता सदोष उक्ति पर पहुँची है जिसके द्वारा उन्होंने उक्त छठे से उसमें तरतम भेद है तो यही बात रात्रि भोजनत्याग अणुव्रत (श्रावक बत) को आलोकित पान भोजन भावना के साथ भी लागू हो जायगी इस तरह श्रावक और मुनि में अन्तर्भूत किया था और इस लिए विद्यानन्द ने उसका दोनों के लिए रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग उपर्युक्त प्रकार से संशोधन करके ('अणुव्रत, नाम न दे बताने में कोई खटकने जैसी बात नहीं है और न इससे करके) कथन के पूर्वापर सम्बन्ध को एक प्रकार से ठीक दोनों का अन्तर बाधित होता है।
किया है वास्तव में वार्तिककारों का काम भी प्रायः यही मुख्तार सा०
होता है । वे अपनी समझ और शक्ति के अनुमार दुरुक्तार्थों "पूज्यपाद और अकलंक देवादि ने तत्वार्थ की अपनी का संशोधन करते हैं,,। अपनी टीका में रात्रि भोजन विरमण नाम के इस छठे समीक्षा:-पूज्यपाद और अकलंकदेव ने किसी दुरुप्रणवत (श्रावक व्रत) का उल्लेख किया है और उसे क्तार्थ का प्रतिपादन नही किया है न विद्यानन्द ने ही वैसे अहिंसा व्रत की आलोकित पान भोजन भावना में अन्तभूत किसी दुरुक्तार्थ का संशोधन किया है । 'अणु' शब्द प्रयोग बताया है किन्तु रात्रि भोजन में संकल्पी हिंसा नही होने के रहस्य को नहीं समझने से मुख्तार सा० स्वयं उलझ से महिंसाणुवत की प्रतिज्ञा में रात्रि भोजन का त्याग नहीं गए हैं और मान्य प्राचार्यो पर दोपारोपण कर बैठे है। पाता तब उसकी भावना में ही उसका समावेश कैसे हो जिस तरह कोई लक्ष्मण को राम का छोटा भाई कहे सकता है ? अतः यह एक पृथक व्रत जान पड़ता है और और कोई राम का भाई ही कहे दोनों ठीक हैं उसी तरह उक्त पालोकित पान भोजन नाम की भावना में इसका पूज्यपाद और अकलंक देव ने रात्रिभोजन विरमण को छठा अन्तर्भाव नहीं होता । हां महाव्रतियों की दृष्टिी से पालो- अणुव्रत कहा है और विद्यानन्द ने उसे व्रत (विरति) ही कित पान भोजन नाम की भावना में रात्रि भोजनत्याग कहा है। पहिला कथन विशेषात्मक है और दूसरा सामाका समावेश जरूर हो सकता है इसी दृष्टी से पूज्यपाद न्यात्मक । पहिले कथन में कोई दुरुक्तार्थता नहीं है अगर अकलंक देव ने उसका समावेश किया है किन्तु ऐसा करते होती तो विद्यानन्द स्वयं उसे प्रकट करते, परन्तु विद्यानन्द हुए उनकी दृष्टि अहिंसाणुव्रत के स्वरूप पर नहीं पहुँची ने ऐसा कुछ नहीं किया है अतः दोनों कथनों में कोई अंतर उनके सामने अहिंसा महाव्रत और मुनियों का चरित्र ही नहीं है विवक्षामात्र है। रहा है इसी से आलोकित पान भोजन के विषय में जो 'अणु' शब्द से मुख्तार सा० ने उसे मात्र गृहस्थों का