Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 284
________________ २४८ . अनेकान्त कि निम्न वाक्यों से स्पष्ट है "इति इमासु दससु अनुस्सतिसु प्रेक्षा का वर्णन है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की कुछ गाथाएँ बुवानुस्सति तावभावेतु कामेन प्रवेच्चप्पसादसमन्नागतेन विभिन्न ग्रंथों की गाथामों से भाव, भाषा, विचार एवं योगिना पटिरूपे सेनासने रहोगतेन पटिसल्लीनेन "इति पि विषय की दृष्टि से मिलती जुलती हैं जिनका उल्लेख निम्न सो भगवा अरहं सम्मासंबुद्धो विज्जाचरण सम्पन्लो सुगतो प्रकार है। विभिन्न ग्रंथों के संकेत निम्नलिखित है : लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्या देवमनुस्सानं कुमारकृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा (का.) कुंद-कुन्द कृत बुद्धो-भगवा "इति (मं० ३/२८५) एवं बुद्धस्स भगवतो वारस अनुवेक्खा (वा.) भगवती आराधना शिवार्य कृत गुण अनुसरितम्बा"। इस प्रकार जैन व बौद्ध दर्शन में (भ. भा.) बट्टकेरकृत मूलाचार (मू.) मरण समाधि भावना द्वारा जिस लक्ष्य की प्राप्ति होती है, वह दोनों में (म. स.) पूर्णतया समान है। का. ६-८-२१ वा. ४-५ =भा. मा. १७१७-१६, १७२५. कत्तिगेयानुप्पेक्वा-वर्तमान में स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा का. २६-२८ वा. ८,६-मू.७=भ. मा. १७४३ नाम से प्रसिद्ध ग्रंथ का प्राकृत भाषा में क्या शीर्षक होगा का. ३०-३१-वा.११,१३-म.भा. १७४६ यह खोजना प्रत्यधिक प्रावश्यक है। ग्रंथ के प्रादि में कर्ता का. ५६ =भ.पा. १८०१, ने "वोच्छ भणुपेमो' तथा अंत में "वारस अनु'पेक्खामो का. ६३ =मू.२७ =भ. आ.१८०२. भणिया" वाक्यों का प्रयोग किया है जिससे यह स्पष्ट का. ६४-६५=मू. २६ -भ.पा. १७६९-१८०० प्रतीत होता है कि प्राचार्य दूसरा नाम "वारस अनुप्सेक्खा" का. ६६ =वा. २४-२६ भ. पा. १७७३. रखना चाहते होंगे पर कुन्द-कुन्द के 'वारस अनुप्पेक्खा' ग्रंथ का. ६८ भ. मा. १७७५%=म. स. ५६४ से भिन्नता दिखाने के लिए ही बाद के प्राचार्यों ने दूसरा का. ७८ - भ. भा. १७५२ नाम कर्ता के नामोल्लेख सहित 'स्वामी कुमारानुप्रेक्षा" का. १२ वा. २३ । रखा । यह नाम सं० १६०३ की प्रति में उपलब्ध है, जो का. ८३ =वा. ४३ भंडार कर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना में १५०० नं० की है। का. ८९ =वा. ४७ =भ.पा. १८२५ यह प्रति इस ग्रंथ की शुभचंद कृत टीका से प्राचीन है। का. १०१ -भ. पा. १८२६ (१) पर इसके टीकाकार शुभचंद्र ने इसका नाम कार्तिकेया- का. १०४ वा. ६७. नुप्रेक्षा रखा, जिसे पं० जयचंद्र जी ने अपनी हिन्दी वच- का.३०५-६ - वा. ६६. निका में भी स्वीकार किया है। इस ग्रंथ को विधिवत् का. ३९३ =वा. ७० रूप से सजा-संभारने का श्रेय टीकाकार शुभचंद्र जी को उपर्युक्त तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है ही है। इसमें ४६१ गाथाएं है । जिनका तीन-चौथाई भाग कि स्वामी कुमार कुंद-कंद, शिवार्य और वट्टकेर आदि केवल लोक और धर्म अनुप्रेक्षा का ही वर्णन करता है शेष आचार्यों की रचनामों से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं, साथ भाग में १० भावनाओं का विस्तृत वर्णन है। जिनका ही अपनी प्रतिभा शक्ति का प्रयोग कर अपने ग्रंथ को सर्व विशद अध्ययन एवं विवेचन मूल ग्रंथ से करना चाहिए। श्रेष्ठ बना दिया है। उन्होंने इस ग्रंथ में अनुप्रेक्षानों के प्रथम तीन गाथाएं प्रस्तावना सूचक हैं, ४-२२ (१६) तक अतिरिक्त और भी कई गुण, द्रव्य, पर्याय, कषाय, व्रत प्रघवानु० २३-३१(६) तक, प्रशरणानु० ३२-७३ (०२) सम्यक्त तप आदि धार्मिक विषयों का विवेचन किया है, तक संसारानु० ७४-७८ (६) एकत्वानु० ८०-८२ (३) जो जैन दर्शन की दृष्टि से अत्यधिक महत्व पूर्ण हैं। इसलिए अन्य त्वानु० ८३-८७ (५) अशुचित्वानु० ८८-६४ (७) कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैन दर्शन का एक प्रत्यन्त उपयोगी संग्रह पाश्रवानु० ६५-१०१ (७) संवरानु० १०२-११४ (१३) बन पड़ा है। निर्जरानु०११५-२८३ (१७०) लोकानु० २८४-३०१(१८) स्वामी कुमार:-प्रस्तुत ग्रंथ के कर्ता स्वामी कार्तिकेय वोषि दुर्लभानु० ३०२-४९१ (१९१) गाथाओं तक धर्मानु हैं अतः इसका नाम स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रसिद्ध हमा।

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