Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 328
________________ २९० उपलब्ध हो जाती है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, मुनि है, जबकि 'कलश' दर्शन से भरे हैं । उनकी अन्य कृतियों श्री कान्ति सागर, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री अगर चन्द में भी भगवद्विषयक दाम्पत्य रति के उत्कृष्ट रूपकों का नाहटा, डॉ. नेमि चन्द्र शास्त्री, डॉ. कामता प्रसाद जैन निर्माण हुआ है । पूज्यपाद ने भक्ति को, भगवान में अनुआदि के लेखों से विद्वान और साधारण पाठक दोनों ही को राग को कहा था। बनारसीदास ने उसे अपनी कृतियों में मनस्तृप्ति होती है। लेखों के सम्पादन में परिश्रम किया गया प्रस्तुत किया। एक ओर वे 'अध्यातमियां सम्प्रदाय' के है। लेख के साथ ही दिये गये सारांश से पाठक को लेख सम सामर्थ्यवान् सदस्य थे तो दूसरी मोर जागरूक भक्त । झने में सुविधा होती है। उन्होंने ज्ञान और भक्ति का जैसा समन्वय किया, दूसरा बनारसीदास का मध्यकालीन हिन्दी साहित्य को एक न कर सका । उनमें कबीर-जैसी मस्ती थी तो तुलसी-जसी महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी मुक्तक रचनायें रस की मर्यादा भी। न वे मस्ती छोड़ सके और न मर्यादा । उन्होंने पिचकारियां हैं। माध्यात्मिकता का जैसा भावोन्मेष वे कर विरोधाभासों के विरोध को निकाल दिया था। वे एक सके, हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं । यद्यपि उन्होंने नाटक असाधारण प्रतिभा और व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। उनकी समयसार, अमृतचन्द्राचार्य के समयसारकलशों को आधार जन्म तिथि पर प्रकाशित इस 'विशेषांक' का मैं स्वागत बनाकर लिखा, किन्तु यह सत्य है कि वह साहित्य का ग्रन्थ करता हूँ। -डॉ.प्रेमसागर जन. (पृष्ठ २७ का शेष) नता को स्वीकार कर लिया। इसके पहिले जैसे बौद्ध पिट- भतः कल्पित संस्कृत रूप के आधार पर मूल प्राकृत का कों की पाली भाषा स्वतंत्र थी (और यह भाषा तो अब अर्थ शोधन में भ्रांति और विवाद बढ़ने का संभव है अतः तक स्वतंत्र ही है) वैसे ही हमारी ग्रंथस्थ प्राकृत भाषा संदर्भ, परम्परा, अनुसंधान वगैरह को लक्ष्य में रखकर स्वतन्त्र थी, और इसी कारण सूत्रों की नियुक्ति, भाष्य संस्कृत द्वारा भी प्राकृत शब्दों का अर्थ करने में जोखिम पौर चूणि ग्रंथ प्राकृत में ही लिखे जाते थे और बिना नहीं हैं तात्पर्य इतना है कि वंश वाचक नाय वा णाय वा संस्कृत की सहायता वे सब ग्रंथ बराबर समझे जाते थे नात वा णात का संस्कृत रूप 'नाग' कल्पने की जरूरत प्रतः प्राकृत शब्दों का अर्थ समझने के लिए संस्कृत का नहीं है। जैन परम्परा में ज्ञातवंश ही प्रसिद्ध है और यह कल्पित प्राधार मावश्यक नहीं है; परन्तु हमारी ज्ञान की ही 'नाय' वगैरह का अर्थ द्योतक है। जिन्होंने 'ज्ञातृ' शब्द. कमजोरी हो जाने से यह परिस्थिति पाई है और इसी की कल्पना की है वे भी अप्रामाणिक नहीं हैं। 'नायाधम्मकारण कई दफे निर्णय करने में भ्रांति ही बढ़ती है। कहा' नाम में 'नाया' शब्द का सम्बन्ध 'ज्ञातृ' मानने वालों वियाहपण्णत्ति शब्द है और इसी प्रकार विवाहपण्णत्ति ने ज्ञात के 'ज्ञाता' रूप के साथ लगाया है और यह शब्द भी एक पाठांतर शब्द है सच्चा नाम वियाहपण्णत्ति है। भी 'ज्ञात' वंश का भी सूचक है हमारे श्वेताम्बरी वृत्तिकार विवाहपण्णत्ति तो . पाठांतर जैमा है फिर भी वृत्तिकार ने ने 'नाया' को 'नाय' माना और समास में दीर्घाकरण किया विवाघ प्रज्ञप्ति, विवाह प्रज्ञप्ति और 'पण्णत्ति' का भी है। मैं समझता हूँ कि दीर्घाकरण की अपेक्षा 'ज्ञाता' प्रज्ञाप्ति, प्रज्ञप्ति ऐसे कई संस्कृत रूपांतर देकर व्याख्याएं मानना विशेष संगत है क्योंकि 'नाया' यह विशेष नाम की हैं। अब कहिए कौन सा नाम स्वीकरणीय होगा? है। प्रस्तु - - -

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