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प्रका
भी मूलाचार के पाठवें अध्याय में ७४ गाथाओंों में बारह भावनाओं का वर्णन किया है। यह रचना भी कुन्दकुन्द की "वारस अनुवेक्खा" जैसी ही प्राचीन ठहरती है, दोनों की गाथायें कहीं अंशतः और कहीं पूर्णतया मिलती-जुलती सी हैं। शिवार्य ने "भगवती भाराधना" की लगभग १६० गाथानों में १२ भावनाओं का वर्णन किया है ।
उनमें उपमादि अलंकारों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। इसकी कुछ गाथायें वट्टकेर और कुन्दकुन्द से मिलती-जुलती हैं। इन तीनों प्राचार्यों के काल निर्णय का निश्चय भव तक निश्चित नहीं हो सका है। तीनों के अनुप्रेक्षा वर्णन के तुलनात्मक अध्ययन से तीनों समकालीन या थोड़े-बहुत अन्तर से आस-पास के ही प्रतीत होते हैं ।
शुभचन्द्राचार्य जो अपने समय के सर्वश्रेष्ठ योगी एवं कवि थे, ने ज्ञानार्णव (योग प्रदीपाधिकार) में भी १८८ श्लोकों में अनुप्रेक्षाग्रों का वर्णन किया है। शुभचंद्राचार्य का समय समंतभद्र' देवनन्दि अकलंक और जिनसेन (८३७ई०) तथा शायद यशस्तिलक के कर्ता सोमदेव के बाद का है। पर हेमचन्द्र ( ११७२ ई०) से पूर्व का है । भर्तृहरिशतक तथा श्रमितगति के सुभाषितों का शुभचंद पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है इसीलिए संभवतः शुभचन्द्र और भर्तृहरि के भाई-भाई होने की किम्वदन्ती प्रचलित हो गई है। हेमचन्द्राचार्य (१०८९ से ११७२ ) गुजरात में सिद्ध राज और कुमारपाल के शासन काल में सर्वश्रेष्ठ विद्वान् थे । उन्होंने योगसार के चौथे प्रस्ताव में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है। वे शुभचंद्र के ज्ञानार्णव से विशेषतया प्रभावित थे । अभयदेव के शिष्य मलधारी हेमचन्द्र ( ११३१ ई०) ने अपने “ भाव भावना" की ५३१ गाथाओं में भी अनुप्रेक्षा का वर्णन किया है जिनमें से ३२२ गाथाओं में केवल संसार भावना का ही वर्णन है। इनकी रचना पर प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में वर्णित अनुप्रेक्षात्रों का प्रभाव बहुलता से विद्यमान है। इन्होंने नेमि, बाल, नंद मेघकुमार सुकौशल भादि की कथानों का भी उल्लेख किया है।
कुछ जैन चरित प्रथवा पुराण ग्रन्थों में भी अनुप्रेक्षात्रों का वर्णन मिलता है वरांगचरित के कर्ता जटिल नन्दि (सातवीं सदी ई०) ने २८वें सर्ग में अनुप्रेक्षाओं का
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वर्णन किया है । उद्योतनसूरि (७७९ ई०) ने "कुवलयमाला" में ६२ गावाभों में धनुप्रेक्षा विवरण दिया है। महापुराण के कर्ता जिनसेन- गुणभद्र (हवीं ई०) ने १२ अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है । सोमदेव ( ९५६ ई०) ने अपने यशस्तिलक के ५२ वसन्ततिलका छन्दों में मनुप्रेक्षा वर्णन किया हैं । अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि पुष्पदन्त (९६५ ई०) ने अपने महापुराण की सातवीं सन्धि के १ से १८ कडवक में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है। कनकामर मुनि (१०६५ ई०) ने अपने करकं चरिउ के हवें परिच्छेद के ६-१७ कडवक में अनुप्रेक्षा वर्णन किया है। क्षत्रचूडामणि के कर्ता वादी सिंह (११वीं ई०) ने ५० अनुष्टुप श्लोकों में अनुप्रेक्षाओं पर लिखा है। उनका ३३वा श्लोक सोमदेव के यशस्तिलक के द्वि० अध्याय के ११२वें श्लोक जैसा ही है । गद्य चिन्तामणि और जीवंधर चंपू में भी अनुप्रेक्षा वर्णन है । सोमप्रभ (११८४ ई०) ने अपने 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थ के ३६ प्रस्ताव के अन्त में कुमारपाल के जैनी बनने पर अपभ्रंश में १२ अनुप्रेक्षात्रों का वर्णन दिया है। वाचकमुख्य उमास्वाति के " प्रशमरति प्रकरण" १४६ से १६२ कारिकाभों में १२ अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। 'चारित्रसार' के कर्ता चामुण्डराय (१०वीं सदी ई०) ने अनुप्रेक्षाओं का वर्णन किया है, जो सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के अनुप्रेक्षा प्रकरण से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यहाँ गोम्मटसार की ५ गाथाओं का भी उल्लेख मिलता है। भ्रमित गति (९९४- १०१५ ई०) के उपासकाचार ( प्रमितगतिश्रावकाचार ) में ८४ उपजाति छन्दों में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन मिलता है जो ज्ञानार्णव के ढंग पर रचा गया था । वीरनन्दि (११५३ ई०) के "आचारसार" के १२ शार्दूलक्रीडित छन्दों (x ३२-४४) में अनुप्रेक्षा वर्णन विद्यमान है । नेमिचन्द्र के 'प्रवचन सारोद्वार की १५७७ प्राकृत गाथाओं की संस्कृत टीका सिद्धसेन ने ११७१ ई० में पूर्ण की थी। इसकी लगभग १३३ गाथाओं में अनुप्रेक्षा वर्णन मिलता है । प्राशाधार (१२२८-१२४३ ई०) के 'धर्मामृत' ६वें अध्याय ५७-८२ श्लोकों में अनुप्रेक्षा वर्णन किया गया है। नेमिचन्द्राचार्य का द्रव्य-संग्रह तथा ब्रह्मदेव (१३वीं सदी ई०) की परमात्मप्रकाश' टीका भी अनुप्रेक्षा वर्णन मिलता है। सिवदेव सूरि के