Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 311
________________ विग्विजय २७५ वह ठक से रह गया। इतना रूप ! क्या कभी यह रूप बायु के झोंकों से पिरक-थिरक कर राजकुमारी के विस्तृत मनुष्य में भी स्वयं हो सकता है ? उसके साथ अपूर्व शारी- और उत्तप्त मस्तक पर थपकियां दे रहे थे । केले की गोभ रिक बल की मिलावट ने जैसे सोने में सुहागा भर दिया सी सुडौल बाहें लज्जा से परिधानों की चंचलता का व्यस्तता था। दास दासियां, सखी सहेलियां, सभी एक बार उन्हें से उपचार करती हुई नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गई थीं। देखकर दोबारा देखने का अवसर ढूंढने लगीं। वह दैवी सौन्दर्य निश्चयतः इस पृथ्वी के ऊपर की वस्तु थी। __ मुखरा उछलती-कूदती राजनन्दिनी के पास पहुंची। वह बाहुबली, जिन्हें देख कर स्त्रियां कामबाण से "लो वह मा गए।" दग्ध हो जाती थीं आज स्वयं एफ मल्हड़ नवयौवना के "कौन मा गए ?" राजकुमारी ने अचकचा कर पूछा। केशपाश में मानों एक क्षण के लिए उलझ से गए थे। "मजी, वही, वन के देवता । अयोध्या के राजकुमार, उस क्षण में दोनों ने ही एक दूसरे की मांखों की मौन हमारी भोली भाली राजकुमारी की भावनाओं के हार । भाषा को पढ़ लिया और फिर तुरन्त अपनी-अपनी निगाह क्या नाम भी बताऊँ।" नीची कर ली। रोष प्रकट करती हुई राजकुमारी ने मुखरा का मुंह इस अलभ्य मौन को महाराज ने तोड़ा, "कहीं राजपकड़कर भींच दिया और वह अपनी हंसी को जबरदस्ती कुमारों का अभिवादन ऐसे किया जाता है, बेटी? जाओ, नाक की राह निकालती रही। किंतु शीघ्र ही उसे इस प्रारती का प्रबन्ध करो। आज हमारे महलों में इक्ष्वाकु मुसीबत से छुट्टी मिल गई । इतनी देर में तो राजनन्दिनी वंश का सूर्य चमका है। मंगल गान हों, और हमारा की चञ्चल भावनायें उसे कहीं की कहीं बहा ले गई, और राजमहल प्राज दीपावली मनाए।" उनके हाथों की पकड़ कब छुट गई मालूम ही न हो पाया और यह सुनते ही राजनंदिनी के पैरों में मानों कल मुखरा छूटकर फिर द्वार पर पहुँच कर वापस मुड़ी और लग गई। पुत्री की विलीन होती हुई प्राकृति को देखते शीश नवाकर उसने अभिवादन के तौर पर कहा : हुए वैजयंती नरेश मुसकराते हुए बाहुबली को साथ लेकर "राजकुमारी की बलिहारी जाऊँ, वह आ गए हैं।" अपना राजमहल दिखाने के लिए आगे चले । उन्होंने कहा, और जब तक चौंक कर राजनन्दिनी अपनी दृष्टि उस "राजमाता के प्रकाल के गाल में चले जाने से सारी पोर करे मुखरा वहाँ से लोप हो गई थी और द्वार खाली था। वैजयंती इस मातृहीन दीपक से जगमगा रही है।" चाह और चाव ने उन 'वह' को देखने के लिए राज "बड़ा चंचल दीपक है !" बाहुबली ने मुसकराकर कुमारी शीघ्रता से उठी, अपने वस्त्रों का मनोनुकूल परि- कहा, और इस बात को लेकर बहुत देर तक वैजयंती नरेश वर्तन किया और बाहर की ओर झपटी। किंतु द्वार पर ही हंसते रहे। वह किसी के कन्धों से टकरा गई । उच्छृखल मुखरा को मुखरा ने पहले ही प्रारती का प्रबंध करा लिया था। दण्ड देने के लिए ज्यों ही उसने ऊपर की ओर निहारा कुछ दूर आगे बढ़ते ही बाहुबली भारतियों से घिर गए। उसकी तसवीर बाहुबली की आंखों में खिंच गई। और इन प्रारतियों के प्रकाश में उन्होंने फिर एक चमकते उस तस्वीर में लज्जा थी, भय था, क्रोध था, और था हए मुख को देखा। वह मुख वैजयंती की राजकुमारी संकोच । पीछे पिता की वयोवृद्ध मूर्ति दृष्टिगोचर हो रही राजनंदिनी का था। किंतु कुछ ही क्षणों में बाहुबली की थी। नमस्कार करने के लिए राजनन्दिनी के हाथ उठे और मखमुद्रा गंभीर हो गई। कुछ विचार पाए और उनक साथ दृष्टि भी उठी और चन्द्र किरणों से पाहत चकवीको मस्तिष्क में जमकर बैठ गए। तरह उसके मन का कोना कोना विध गया। राजनन्दिनी वबाहु की है । वह अमानत है । उसकी बाहुबली ने उस अलभ्य क्षण में न जाने क्या क्या भोर मोह दष्टि से देखने से कुछ हाथ नहीं लगेगा। केवल दर्शन कर लिया। गौरवर्ण मुख पर कनपटी से गालों तक एक कलंक का टीका उनके माथे पर लग जाएगा। सोचतेलाली छा गई थी । श्यामकुंतल केश वातायन से पाते हुए सोचते उनकी दृष्टि उपेक्षा से भर उठी।

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