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अनेकान्त भारती समाप्त हो गई। विश्राम के लिये बाहुबली कर द्वार की भोर देखा । किन्तु वहाँ कोई नहीं था । केवल को साथ लेकर महाराज पग्रसेन उनके लिये नियत कक्ष एक लोप होते हुए आँचल का एक भाग दिखाई दिया था। में गए। कक्ष सुगन्धि से महक रहा था। झाड़फानूसों का हो सकता है यह उनका भ्रम हो, आज भ्रम ने उन्हें बहुत प्रकाश एक कोमल शय्या पर विखर रहा था। साफ और सताया था। वह अपनी मनोदशा पर स्वयं मुसकराये और स्वच्छ वातावरण नीरवता को साक्षी करके विश्राम का प्रांखें मींच कर सो जाने का उपक्रम करने लगे। पाह्वान कर रहा था। चारों पोर की दीवारों पर लगे थोड़ी देर में निद्रा की सुखद छाया ने उनकी दुविधा भित्ति चित्रों में अंकित वन पशु मानों इसी कारण जड़ हो का अन्त कर दिया। गए थे। एक चित्र में कुलांच भरता हुआ हिरण और पास ही स्थित पक्ष में राजनन्दिनी मुखरा के साथ उसके पीछे भगती हुई हिरणी की मृदु भाकृतियां अंकित थीं। एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण वार्तालाप में व्यस्त की । राजकुमारी __ महाराज पद्मसेन ने कुछ समय के लिए बिदा लेने का ने अपने मुंह को हाथों में छिपाते हुए कहा, उपक्रम करते हुए कहा, "कुमार विश्राम करे। परिचारि- "मैं अपने को नहीं रोक सकी, क्या कहेंगे वह अपने काएं सेवा में हर समय उपस्थित रहेंगी।"
मन में, उन्होंने दर्पण में मुझे देख लिया था।" वैजयंती नरेश चले गए। बाहुबली निढाल से होकर "कहेंगे क्या? सोचेंगे दर्पण भी सजी हो गए हैं, शय्या के एक कोने पर बैठ गए। बार-बार उनका ध्यान "मुखरा ने मुखरित किया। उस हिरणों के चित्र की मोर जाता था। इन हिरणों से "वह मुझे निर्लज्ज समझेगे, "राजनंदिनी ने आशंका उनकी दशा कितनी मिलती-जुलती थी। वह भी तो राज- प्रकट की। नंदिनी से दूर-दूर भागे जा रहे थे। और "और क्या "पुरुष क्या कम निर्लज्ज्ज होते हैं ?" मुखरा ने प्रश्न राजनंदिनी उस हिरणी की भांति ही उनका पीछा कर किया । "कैसे वो घूर-धूर कर देख रहे थे भारती के रही थी। नहीं, नहीं, यह स्वयं उनके मन का धोखा है, समय ।" उनके स्वयं के विचारों का प्रतिबिंब है । राजनंदिनी हृदय "किसे, तुझे?' हंसी होंठों पर लाकर राजकुमारी से वज्रबाहु के प्राधीन हो चुकी है।
ने कहा। उन्होंने सिर को एक साधारण सा झटका दिया और "मैंने उनका क्या छीन लिया है, जो मुझे देखेंगे । वह वास्तविक संसार में उतर पाए। परिधान उतार कर तो अपने चोर की ओर देख रहे थे। अयोध्या वालों से जा माधारों पर टांग दिए और शय्या पर अपने पैर फैला कर कर कहेंगे वैजयंती में मन चुरा लेने वाले चोर बसते है। प्रांखें मूंद ली, लेकिन पलकों में तो एक ही तसवीर मानो फिर किसी दिन फ़ौजसपाटा लेकर अपने चोर को पकड़ने बहुत गहरी होकर खुदी हुई थी, जो पलकें प्रांखों के ऊपर पाएंगे और ले जाएंगे पकड़ कर, बस इतनी सी तो बात माते ही सामने आ गई। यह निश्चयतः वैजयंती की है", मुखरा ने अपनी दंतपंक्ति दिखाते हुए कहा। राजकुमारी का पीछा करता हुआ चित्र था।
“धत्, पगली", "राजकुमारी सहसा गंभीर होकर उन्होंने माँखें खोल दीं। उनके ठीक सामने की भित्ति बोली, "उनके मुख के भाव तो पढ़े ही नहीं जाते न जाने पर लगा हुमा दर्पण उन्हें प्रतिबिंबित कर उठा, और उन्हें जराजरा सी देर में क्या सोचने लगते हैं।" अनुभव हुमा कि उनके चेहरे पर आवश्यकता से अधिक "यही सोचने लगते होंगे कि जिसकी भोर देखा जा थकावट के चिह्न थे। एक बार अांखें बन्द करके उन्होंने रहा है वह भी अपने को चोर समझता है या नहीं, प्रेम में फिर दर्पण को देखने के लिए खोलीं। लेकिन इस बार अभियुक्त अपराध स्वीकार न करे, तो अभियोग नहीं चल वह चौंक गये । दर्पण में उनके चित्र के पीछे एक और सकता, राजकुमारी।" चित्र था। वह स्पष्टतः राजनन्दिनी का चित्र था, जो द्वार "और यदि उन्हें ही अपने नुकसान का भान न हो, की मोट से उनकी मोर देख रही थी। उन्होंने अचकचा तो?"
(क्रमशः)