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ज्ञात वंश
श्री पं० बेघरदास दोशी प्रभी अनेकान्त (दिसम्बर १९६२) पत्र में ('शोधकण' के, कोस्य वंश के तथा क्षत्रिय वर्ण के प्रवजित थे तथा के शीर्षक नीचे .२२४) पर पढ़ने में पाया कि "जैन कितनेक भट वंश वगैरह के भी प्रवजित थे?" इस भारती (ता. १७ नवम्बर १९६२ वर्ष १० अंक ४६) में प्रसंग में भगवंत के वंश व कुल की कोई चर्चा नहीं है वा तेरापंथी श्वेतांबर सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री तुलसी के उस चर्चा का प्रसंग भी नहीं है मात्र यह बताना है कि जो शिष्य मुनि नथमल जी का एक नोट प्रकाशित हुअा है कोई भगवंत के शिष्य थे उनमें किस किस वंश के वा जाति के जिसका सारांश यह है कि भगवान महावीर इक्ष्वाकुवंशी लोग शामिल थे इस प्रसंग में भी वृत्तिकार ने 'नाय' का काश्यप गोत्री क्षत्रिय थे और नागवंशी थे। नागवंश की अर्थ सर्वप्रथम 'ज्ञात' बताया है और बाद में 'अथवा' करके उत्पत्ति इक्ष्वाकु वंश से हुई है इत्यादि।"
'नाग' भी बताया है अतः इस उल्लेख से यह निश्चय कभी इस नोट से मालूम होता है कि मुनि नथमलजी नात भी नहीं हो सकता है कि 'नाय' शब्द केवल 'नाग' वंश या नाय शब्द का संस्कृत रूप 'नाग' मानकर भगवान के को ही सूचित करता है और इस उल्लेख मात्र से यह भी नागवंश होने को प्रमाणित कर रहे हैं और प्रौपपातिक सत्र निर्णय नहीं दिया जा सकता है कि भगवान का नागवंश है। की श्री अभयदेवीय वृत्ति की साक्षी देकर 'नाय' का बौद्ध पिटकग्रंथों में सर्वत्र 'निग्गंठो नातपुत्तो' शब्द 'नाग' प्रर्य समझने में उक्त वृत्ति को संवादरूप मानते हैं। महावीर भगवंत के लिए आता है। वह उल्लेख किस
जैनमागम में नातपुत्त, नायपुत्त शब्द अनेक स्थल पर प्रकार अप्रामाणिक हो सकता है? इसका खुलासा भी पाते हैं और प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने स्तुति रूप श्लोक नथमल जी को सबसे प्रथम करना चाहिए, और जैन भागमों में "वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम' ऐसा विशेष रूप से भगवान में जहां जहां भगवान के कुल वा वंश के रूप में नात व महावीर का निर्देश करके नात अथवा णाय का संस्कृत नाय वा णाय वा णात शब्द आया है। वहां कहीं भी उस रूपांतर 'ज्ञात' स्पष्ट रूप से दिया है और जिस वत्ति की शब्द का केवल 'नाग' अर्थ किसी वृत्ति कारने बताया हो साक्षी उक्त मुनि जी ने दी है वहां भी नात वा नाय शब्द यह भी मुनि जी को संवाद के लिए साधार बनाना चाहिए। का प्रथम रूपांतर 'ज्ञात' दिया है और द्वितीय रूपांतर प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि जी ने अपने परिशिष्ट पर्व में भगवंत "अथवा" करके 'नाग' दिया है इस वृत्ति के जिस स्थल में
की स्तुति रूप में जो यह पद्य दिया है'नात' वा 'नाय' शब्द का 'नाग' भी एक रूपांतर दिया
"कल्याणपादपारामे श्रुतगडाहिमाचलम् । है वहां भगवान के वंश की किसी प्रकार की चर्चा नहीं है
विश्वाम्भोजरविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम्" । परन्तु वहां जो प्रसंग है वह इस प्रकार है-"तेणं कालेणं इसमें जो 'शातनन्दनम्' विशेषण नाम के रूप में कहकर तेणं समएणं समणस्स भगवसो महावीररस्स मन्तेवासी बहवे भगवंत महावीर का निर्देश किया है उसको अप्रामाणिक समणा भगवन्तो अप्पगेइया उग्गपब्बइया भोगपव्वइया करने के लिए पुष्ट प्रमाण देना चाहिए। राइण्ण. णाय. कारेव्व० खत्तियपव्वइया भडा" और दूसरी बात-प्राकृत शब्दों के अर्थ निर्णय के लिए इत्यादि । इसका तात्पर्य यह है कि "उस काल में उस कल्पित संस्कृत रूपांतरका प्राधार लेना कभी-कभी भ्रांतिसमय में श्रमण भगवंत महावीर के अन्तेवासी-शिष्य रूप जो जनक हो जाता है । जैसे हमारे प्रागमों में कई जगह प्रमण भगवंत थे उसमें से कितनेक उग्रबंश के प्रवजित थे, "लेच्छइलेच्छहपुत्ता" ऐसे शब्द आये हैं । यह शब्द प्रसिद्ध मोगवंश के प्रवजित थे, इसी प्रकार राजन्यवंश के, णायवंश लिच्छवी वंश का सूचक है इसमें लेश भी शंका नहीं है।