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२७४ अनेकान्त
वर्ष १५ इतना विश्वास ! तो क्या राजनन्दिनी भी वज्रबाहु की समय पर विधिवत् राजनन्दिनी का विराट् स्वयम्बर करेंगे, और उतनी ही पाकर्षित है? यदि यह भी वज्रबाहु को जिसमें राजकुमारी की अपनी इच्छानुसार अपना वर भाप प्रेम की दृष्टि से देखती है, तो वैजन्ती नरेश क्यों उन चुन लेने की सुविधा होगी। वजबाहु ने यह वचन लेकर की राह का कांटा बनना चाहते हैं ? क्यों राजनन्दिनी अपने मित्र से विदा ली और फिर कभी अपने प्रामन्त्रण बज्रबाहु से पीछा छुड़ाकर इस प्रकार अपने मामा के यहां पर बाहुबली से पाने का वचन लेकर उसने अपनी सेना चली जाना चाहती थी ? हो सकता है यह केवल पिताका सहित अपनी राजधानी रतनपुर की ओर कूच बोल दिया। प्रभाव हो । तभी तो वह तुरन्त वापस लौट चलने के लिए एक बार वञ्चबाहु ने राजनन्दिनी को बचाने के लिये तैयार हो गई। यदि यही बात है, तो समस्या का हल दूर महागंगा में अपने प्राण संकट काल में डाले थे। वैजयन्ती नहीं है। समझौते की आशा निकट है।
नरेश अपनी झूठी पान के अभिमान में प्राज इस तथ्य को वजबाहु के कन्धों पर अपनी बाहुमों को स्नेह से दबा भूल जा सकते हैं, किन्तु वजबाहु तो प्रयत्न करके भी उस कर बाहुबली ने कहा, "यदि तुम यही चाहते हो कि सारा दिन से आज तक राजनन्दिनी की छवि को नहीं भूल सकता निर्णय राजकुमारी पर छोड़ दिया जाए, तो यही होगा, बंधु था। उस पर एक मात्र वज्रबाहु का ही अधिकार है। वही किंतु तुम्हें अपनी सेनामों का घेरा उठा लेना होगा, और है, जिस पर राजनन्दिनी अपने तन मन को न्यौछावर मैं वैजयन्ती नरेश का हाथ तुम दोनों के बीच में से हटा कर सकती है यही वज्रबाहु का विश्वास था। स्वयम्बर दूंगा। किंतु किंतु.....
प्राये, तो वह देखेगा कि किस प्रकार राजनन्दिनी उसके वजबाहु, बाहुबली की इस किंतु परन्तु को समझ उस परोपकार की भावना से प्रोत-प्रोत उपकार को भूल गया । उसने बीच में ही बाहुदली को संकोच मुक्त करते सकती है । हुए कहा, "किन्तु यदि राजकुमारी ने मुझे फिर स्वीकार न आज दूसरी बार बाहुबली ने राजनन्दिनी की रक्षा की किया, तो मुझे आक्रमण का अधिकार न होगा, यही न ? मैं थी। इतनी सुगमता से मामले को निबटा कर उन्हें अयोध्या इस बन्धन को स्वीकार करता हूँ। मुझे राजकुमारी पर वापस नहीं लौट जाने दिया जा सकता था। बज्रबाहु के विश्वास है।
कूच करते ही जब बाहुबली की सेनाएं भी कूच करने लगी वज्रबाहु को राजकुमारी की बुद्धि पर विश्वास था। तो वैजन्ती नरेश का निमन्त्रण मिला। सेनाओं को विदा बाहुबली ने इसे इस रूप में लिया कि उसे राजनंदिनी के करके बाहुबली को कुछ दिनों वैजयन्ती का राज अतिथि हृदय पर, उसके प्रेम पर विश्वास है । और यात्रा के बीच बन कर रहना ही होगा यही उस निमन्त्रण का मूल उद्देश्य में राजनन्दिनी की ओर से उसके हृदय में जो क्षणिक एक था, जिसे राज्योचित भाषा के प्रावरण में छिपा कर नियंनन्हा सा स्फुलिंग जल उठा था वह अनुकूल हवा न पाकर त्रण में प्रकट किया गया था। जल के ऊपर बुलबुले की नाई तिरोहित हो गया।
वृद्ध वैजयन्ती नरेश तो बाहुबली के रूप गुण को देखते बाहुबबली की योग्यता पर यकीन करके वचबाह ने ही मुग्ध हो गए थे । अवसर सम्मुख ही पाया जानकर अपना घेरा उठा लिया । अगले दिन सुबह स्वयं बाहुबली के उनके मन में एक क्षीण सी भावना निरन्तर बलवती होती संरक्षण में राजकुमारी राजनन्दिनी ने वैजयन्ती के गढ़ में जा रही थी, यदि किसी प्रकार बाहुबली और राजनन्दिनी प्रवेश किया। यह गृह प्रवेश कितना सुखद था कि यह का संबंध हो जाए, तो साक्षात्कामदेव और रति की जोड़ी केवल वही जान सकता है, जो बलात् अपने देश से निर्वा- मिल जाए । किंतु कहां अयोध्या और कहां वैजयन्ती । बार सित होकर पुनः उसके द्वार पर माया हो।
बार यही विचार उनके मन में कौर के तिनके की तरह समझौता हो गया । वैजन्ती नरेश ने अपनी पुत्री राज अटक जाता था। नन्दिनी का विवाह कौशाम्बी के युवराज से करने का असीम अादर सहित महाराज पनसेन प्रयोध्या के कुमार विचार छोड़ दिया। उन्होंने पाश्वासन दिया कि वह उचित को अपने राजमहल में ले गये । वहां जिसने भी उन्हें देखा