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जैन परिवारों के वैष्णव बनने सम्बन्धी वृत्तान्त
श्री नगरचन्द्र नाहटा
भारत में अनेक धर्म-सम्प्रदाय हैं और उनमें परस्पर प्रेम की अपेक्षा विरोध की भावना ही अधिक रही है, इसलिए एक-दूसरे दोनों सम्प्रदाय के गुणों एवं विशेषताओं का वर्णन भिन्न सम्प्रदाय के ग्रन्थों में नहीं मिलता। उन की बुराइयाँ बतलाते हुये खण्डनात्मक प्रणाली को ही अधिक अपनाया गया, क्योंकि अन्य धर्म वालों को अपने धर्म की घोर प्राकृष्ट करने का यही सरल और ठीक उपाय समझा गया । प्राश्चर्य जब होता है कि जिन संतसम्प्रदायों ने हिन्दू और मुसलमानों को एक बतलाया और उनके पारस्परिक भेद-भाव और विरोध की कड़े शब्दों में भर्त्सना की उन्हीं संत-सम्प्रदायों में जैनधर्म का मसीन उड़ाया गया है । वास्तव में एक-दूसरे की मान्यतानों को तटस्थ और सही दृष्टि से नहीं देखने का ही यह परिणाम है और जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि दिखाई देने
बहुत सुंदर है, कहा जाता है कि वह सं० १९०३ में प्रतिष्ठित हुई थी।
झालरापाटन के चन्द्रप्रभ मंदिर में दशवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, उसका मूर्तिलेख निम्न प्रकार है
सं० १५५२ वर्षे जेठवदी ८ शनिवासरे श्री काष्ठासंवे बागड़ गच्छे (नंदीतटगच्छे ) विद्यागणे भ० विमलसेनस्वरपट्टे म श्री विजयसेनदेवास्तपट्टे धाचार्य भी विशालकीति सहित बड़े शाति परमेश्वर गोत्रे सा० गोगा भा० वावनदे, पुत्र पंच, सा० कान्ह, सा० करमसी, भा० गारी कनकदे, साह कानू भा० जीरी, सा० बेवर मा० आदे, सा० गोगा, भा० गोगावे, तेनेदं शीतलनाथस्य विम्बं निर्माप्य प्रतिष्ठा कारापिता पुत्री २, बाई- माहो, बाई पुतली ।
इस तरह झालरापाटन भारतीय संस्कृति के साथ जैन संस्कृति का भी केन्द्र रहा है, आज भी वहां अनेक प्रतिष्ठित जैन व्यक्ति रहते हैं।
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लग जाती है। किसी भी महान् व्यक्ति या धर्म को हम जब दोष निकालने की दृष्टि से देखते हैं तो हमारा उनके गुण या विशेषताओं की ओर ध्यान न जाकर दोष ही उभर आते हैं, यावत् गुणों को भी दोष समझने व कहने लगते हैं । महाभारत का एक दृष्टान्त बहुत प्रसिद्ध है कि युधिष्ठिर को कहा गया कि इस नगर में पापी या अवगुणी व्यक्ति कितने और कौन-कौन हैं ? इसका पता लगा लाभो और इसी तरह दुर्योधन से कहा गया कि नगर के धर्मी और गुणी व्यक्तियों की जानकारी प्राप्त कर घाघो तो दुर्योधन को सभी व्यक्तियों में दोष नजर आये और युधिष्ठिर को गुण । इस तरह दृष्टि भेद मनुष्य को वास्तविकता तक पहुँचने नहीं देता । राग और द्वेष जहाँ तक मनुष्य में हैं वहां तक उसका ज्ञान निर्मल और पूर्ण नहीं हो पाता यह एक माना हुआ तथ्य है और इसीलिए तीर्थंकर जब तक पूर्ण वीतरागी नहीं हो जाते थे तब तक धर्मोपदेश नहीं देते ।
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दूसरे सम्प्रदाय वालों को प्रपने सम्प्रदाय में दीक्षित करने का यही प्रधान उपाय माना गया कि उस सम्प्रदाय की किसी-न-किसी बात को गलत बतलाया जाय और अपने सम्प्रदाय की अच्छाइयों का प्रचार किया जाय । इससे भिन्न सम्प्रदाय वाला व्यक्ति अपनी ओर आकर्षित होगा और परिवार के एक व्यक्ति को यदि अपनी ओर ठीक मे पाकषित किया जा सका तो थोड़ा-सा मौका मिलते ही सारे परिवार को अपने सम्प्रदाय का धनुवायी बनाया जा सकेगा । साधारण व्यक्ति सम्प्रदाय प्रचारकों की बातों के चक्कर में सहज ही भ्रमित हो जाता है इसी लिए प्रत्येक सम्प्रदाय वालों को अपने सम्प्रदाय के अनुयावियों को बनाये रखने के लिये बाड़ावन्दी करनी पड़ी कि दूसरे सम्प्रदाय वाले के पास मत जाना; उनकी बातें नहीं सुनना; सम्प्रदाय के गुरुधों और प्रचारकों से दूर ही रहना; क्योंकि उनकी संगति से तुम्हारे विचार सहज ही में बदल सकते हैं, जिससे तुम अपने सम्प्रदाय को छोड़ न