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दिग्विजय
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दूसरी ओर उनके मन में राजनंदिनी के ऊपर डाली वैजयंती की राजकुमारी की रूपगरिमा प्रयोध्या तक भी हुई उस दूसरी सचेतन दृष्टि ने बाहुबली से भयानक जा पहुंची है, और अयोध्या के राजकुमार बाहुबली उस उथलपुथल मचा दी। इतना रूप और इतने निर्दोष अंग रूप गरिमा पर मुग्ध हो गए हैं।' विन्यास ! यह मानवी थी या स्वर्ग की देवी ? कौन 'नहीं, नहीं, यह बात नहीं, वचबाहु," बाहुबली ने मानव है, जो इस प्रकार के आकर्षण से बच सकता है ? जल्दी से इस आरोप का निराकरण करना चाहा। यदि वज्रबाहु ही इसके वशीभूत हो गया, तो इसमें क्या वज्रबाहु ने अपने संशय की पुष्टि की : "क्यों, हो पाश्चर्य है ?
सकता है राजनंदिनी के बिना अयोध्या के राजमहल सूने अयोध्या की अजेय सेनाओं का प्रागमन सुनकर एक ही रह जाएं।" बार तो वज्रबाहु के हाथों के तोते उड़ गए, किन्तु जब
बाहुबली इस व्यंग्य से गंभीर हो गए, उन्होंने तनिक उसे मालूम हुआ कि उसका परम मित्र बाहुबली ही उस
गुरु स्वर में कहा, "आप भूल रहे हैं, महाराज बज्रबाहु, सेना का संचालन कर रहा है, तो उसके पाश्चर्य का क्या आपको बाहुबली की आंखों में रूप की प्यास दिखाई पारावार न रहा।
देती है ? मैं फिर कहता हूँ कि आप भूल कर रहे हैं, क्या बाहुबली उससे युद्ध करेगा? क्या राजनंदिनी
महाराज वज्रबाहु, आपको भारी भ्रम हुआ है, बाहुबली की मनमोहिनी छवि ही उसे यहां खींच कर लाई है ?
कभी भी अपने मित्र का प्रतिद्वन्दी नहीं हो सकता।" ___ जब तक अयोध्या की सैनायें वैजयन्ती के गढ़ के
___ "यदि तुम मेरे प्रतिद्वन्दी नहीं हो, तो संसार की बाहर नहीं पहुंच गई, वज्रबाहु के मन में ये दो प्रश्न चक्कर
कोई शक्ति मुझसे राजनंदिनी को नहीं छीन सकती," काटते ही रहे। जब उसने निश्चय किया कि उसे एक
और वज्रबाहु ने बाहुबली के थामे हाथ अपने गले में डाल वार स्वयं अपने मित्र से भेंट करनी ही होगी।
लिए, उस प्रकाट्य मंत्री की निकटता उसकी आंखों में यशाविधि बाहुबली के पास महाराज वज्रबाहु की
कांध गई। भेंट की इच्छा की सूचना भेजी गई, सुनते ही बाहुबली के मन पर जैसे एक बोझ सा हट गया। उन्होंने सहर्ष इस
बाहुबली ने मित्र की प्रसन्ता से प्रसन्न होते हुए कहा, भेंट के लिए स्वीकृति दे दी।
"तुम्हें अपनी प्रेयसी मिले, मुझे इसकी खुशी होगी, किन्तु दोनों सेनानी के बीच में एक तंबू तना और बाहुबली
अनीति से मिले, इसका दु:ख होगा, दुःख ही नहीं मेरा अपने मित्र के स्वागत में प्रांखें पसार कर बैठ गए, कुछ अ
अपमान भी होगा, और तुम जानते हो, मित्र की नीति ही देर में वज्रबाहु के डेरे में आए, अपने विलग मित्र
और कर्तव्य मित्रता से बड़े है।" को सम्मुख देखते ही बाहुबली ने अपनी बाहें फैला दी। "तब हमारे मित्र को कुछ सोचना पड़ेगा। तुम्हें 'हम अपने प्रिय मित्र का स्वागत करते हैं।'
देखना होगा कि अनीति हमारी ओर से है या वैजयन्ती वज्रबाहु ने उन बढ़ी हुई बांहों को थामते हुए कहा, के उस बूढ़े नरेश की ओर से । वह कौसाम्बी के उस कायर 'इतनी सेनाएं, ये सब क्या हमारे ही स्वागत के लिए युवराज से उस हीरे का गठ बंधन करना चाहते हैं। वह आई हैं ?'
महलों को छोड़कर झोपड़ी के ऊपर कलश चढ़ाना चाहते बाहुबली की पलकें एक क्षण के लिए लज्जा से झुक हैं, "वज्रबाहु ने गंभीर बन कर कहा । गई, फिर कर्तव्य का तेज लेकर वे ऊपर उठीं, "महाराज "पिता का अधिकार है जहां चाहे अपनी पुत्री का वज्रबाहु का मित्र अयोध्या का राजकुमार भी है, ये सेनाएं विवाह करे, "बाहुबली ने उत्तर में कहा। अयोध्या की सेनाएं हैं, महाराज वज्रबाहु के मित्र की वज्रबाहु ने कटुता मिश्रित स्वर में कहा, "काश कि नहीं, मैं मजबूर हूँ, बन्धु, मेरे हाथ बंधे हुए हैं।" वह अपना यह निर्णय अपनी पुत्री पर छोड़ देते । तब वह
वजबाहु ने उपेक्षा से कहा, 'नहीं, मालूम होता है सोच सकती कि वह महलों रस्न बने या झोपड़ी का कंकर।