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नवागढ़ : एक महत्वपूर्ण मध्यकालीन जैनतीर्थ
- श्री नीरज जैन -
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में टीकमगढ़ से पंद्रह पात एवं ग्रीवा तथा मस्तक की रचना सुन्दर बन पड़ी है। मील दूर नावई नाम का एक छोटा सा ग्राम है । इस स्थान गुच्छकों के माध्यम से चित्रित केशावलि में दोनों पोर पड़ी का नाम नवागढ़ भी है। ग्राम के दक्षिण-पूर्वी कोने पर एक हुई गुलकें और भौहों के कमान इस मूर्ति की अपनी विशेबड़ा टीला पड़ा है जिस पर किसी समय विशाल जैन मंदिर षता है । वक्ष भाग पर श्रीवत्स भी दर्शनीय है। रहा होगा। वर्तमान में तो वहाँ केवल एक मोहरा (जमीन सिंहासन के पार्श्व में शासन देवियां तथा इन्द्र अंकित के नीचे मंदिर है और ऊपर एक नवीन मंदिर तथा संग्र- किए गए हैं। पर भामण्डल अति सादा तथा ऊपर से हालय है जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण और कतिपय दुर्लभ खंडित है। यह प्रतिमा किसी प्रापत्तिकाल में केवल सुरक्षा कलावशेष संगृहीत हैं।
की दृष्टि से इस भोहरे में रख दी गई शात होती है। यह टीला चबूतरानुमा है और उसके चारों पोर
संग्रहालय विशेषकर उत्तर की पोर-लगे हुए विशाल चौरस शिलाखण्ड किसी मन्दिर के खंडहर होने का प्रमाण देते हैं।
वैसे तो यह पूरा चबूतरा ही एक विशाल भू-गर्भित
संग्रहालय कहा जाना चाहिए, क्योंकि यहां महत्त्व-पूर्ण चबूतरे के बीचों बीच केवल एक मनुष्य के उतरने
सामग्री दबी हुई पड़ी होने के अनेक प्रमाण और महती योग्य (लगभग डेढ़ फुट) द्वार से नीचे उतरने की सीढ़ियाँ
संभावनाएं दिखाई देती हैं, परन्तु उनका उद्घाटन-श्रम हैं, जहां आठ फुट लम्बा चौड़ा और ६ फुट ऊंचा भोहरा
और धन द्वारा ही साध्प होगा। यहां पास पास से उठाकर है। इसकी छन का पटाव दो पत्थरों से किया गया है
जो शिल्प खण्ड एकत्र किए गए हैं उनमें कई विशेष महत्त्व जिनमें एक विशाल कमल की आकृति बनाई गई है । द्वार
पूर्ण हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैके ऊपरी तोरण में तीर्थकर प्रतिमा तथा दोनों पार्श्व में कलश वाहिनी यक्षी प्रतिमाएं हैं परन्तु ये तीनों पत्थर उल्टे तोरण लगे हैं।
कला-शिल्प की अपेक्षा से संभवतः इस तोरण का स्थान भोहरे में उत्तर मुख,कायोत्सर्ग मासन,मत्स्य चिह्नांकित न केवल यहां के संग्रहालय में प्रथम होगा वरन् दो-चार भगवान अरहनाथ की मनोज्ञ, नासाग्रदृष्टि साढ़े पांच फुट अच्छे संग्रहालयों में भी सुन्दरता, वीतरागता और लालित्य ऊंची प्रतिमा अवस्थित है।
का एक साथ इतना सुन्दर प्रतिनिधित्व करने वाले पाषाण नीले पाषाण की सुन्दर प्रोपदार पालिश की हुई यह दुर्लभ ही होंगे, यह किसी विशाल वेदी पर-मूल नायक प्रतिमा सं० १२०२ विक्रमाब्द में स्थापित की गई थी। की मूर्ति के ऊपर लगे हुए तोरण का भाग है जिसपर शांतिनाथ और कुंथनाथ की दो अन्य प्रतिमाएं, जो यहां भगवान को कमल मर्पित करते हुए दो मस्त और सुसज्जित रही होंगी, उनमें से शांतिनाथ की प्रतिमा का सिंहासन गजराज अंकित किए गए हैं, गजारूढ़ देव और देवांगनाएँ वाला हिस्सा प्राप्त हुमा है तथा संग्रहालय में सुरक्षित है। अपने दोनों हाथों में कलश और पुष्पमाल लेकर पूजार्थ इस खण्ड पर संवत् सहित शिलालेख भी हैं।
जाते हुए चित्रित किए गए हैं। हाथियों के पीछे भति प्रतिमा के हाथ की हथेलियों कमलाकार बनाई गई सुन्दर भलंकारों के बीच दोनों ओर पांच-पांच तीर्थंकरों हैं, और मंगुलियों में वही वैचित्र्य है जो सं० १२०१ की का अंकन है। तोरण का अन्त ऊपर की ओर शिखर की मदनपुर की मूर्तियों में पाया गया है । शरीर शौष्ठव, अनु- तरह शिला खण्डों का अंकन करके चक्र, प्रामलक और कलश