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अनेकान्त
वर्ष १५
टीकाकार शुभचन्द्र के पारिवारिक जीवन के बारे में कुछ रासा ग्रंथ रचे तथा १४७० ई० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा भी पता नहीं है। उनके स्वयं के बारे में जरूर ग्रन्थ के कराई। अन्त में उल्लिखित प्रशस्ति से कुछ ज्ञात होता है । वे मूल
शानभूषण-ये भुवनकीर्ति के उत्तराधिकारी थे और संघीय नन्दीसंघ के बलात्कार गणी प्राचार्य थे उनकी गुरु
इन्होंने १४७७ से १४६५ ई. तक अनेकों मूर्तियों की परम्परा में निम्न प्राचार्यों के नाम मिलते है :
प्रतिष्ठा कराई। यद्यपि वे गुजराती थे फिर भी अपने प्रतिभा कुन्दकुन्द, पद्मनन्दी, सकलकी ति, भुवनकीति, ज्ञान- बल से उन्होंने उत्तर भारत की भद्रारकीय गद्दी सम्भाली। भूषण, विजयकीति, शुभचन्द्र, कुन्दकुन्द । ऐसी जनश्रुति है पावली से विदित होता है कि उन्होंने भारत के विभिन्न कि कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुड़ों की रचना की थी परन्तु अब तीर्थ स्थानों की यात्रा की थी जहाँ इन्द्र भूपाल, देवार्य तक केवल एक दर्जन रचनाएं ही प्राप्त हो सकी हैं, जिनमें
मुदलियार, रामनाथार्य, वोम्मारासार्य, कल्पार्य, पांडुराय से प्रवचनसार श्रेष्ठ और सुन्दर ग्रंथ है। उनकी रचनाएं प्रादि दक्षिण के प्रमख श्रावकों द्वारा सम्मानित हये थे। प्राकृत (जैन शौर सेनी) भाषा में ईसा के कुछ वर्षों पूर्व उन्होंने तत्त्वज्ञानतरंगिणी, सिद्धान्तसारभाष्य, परमालिखी गई थीं।
थोपदेश, नेमिनिर्वाण पंजिका, पंचास्तिकाय टीका आदि पग्रनन्दी-पट्टावली से प्रतीत होता है कि पद्मनन्दी को ग्रंथों की रचना की थी। जानभषण नाम के कई विटन दिल्ली (प्रजमेर) की भट्टारकी गद्दी प्रभाचंद्र से उत्तरा- हुए हैं, अतः उपर्युक्त ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां ध्यान से धिकार में मिली थी, जो लगातार १३२८-१३६३ ई. का
निरीक्षण की जानी चाहिए । दो मूर्ति लेखों से स्पष्ट प्रतीत समया । वे ब्राह्मण थे तथा 'भावना पद्धति' के ३४ होता कि १५००ई० में उन्होंने विजयकीति के लिए अपनी संस्कृत श्लोकों के रचयिता थे, उन्होंने 'जीरापल्ली पाश्व- भट्रारकीय गद्दी खाली कर दी थी। उनकी तत्वज्ञान तरंनाथ स्तोत्र' तथा अन्य स्तोत्र भी रचे थे। उन्होंने १३६३ गिणी १५०३ ई० में पूर्ण हई थी। १५१८ ई० में लिपिई० में आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। इनके कृत ज्ञानार्णवकी प्रति उन्हें उपहार स्वरूप भेट की गई थी ही वे तीन शिष्य थे जिन्होंने दिल्ली, जयपुर, ईडर और अतः निश्चित है कि वे ई० १५१८ में जीवित थे। सूरत की भट्टारकीय गद्दियां सम्भाली थीं।
विजयकोति-ये ज्ञानभूषण के उत्तराधिकारी थे, सकलकीति-ये पद्मनंदी के शिष्य थे जिन्होंने बलाकारगण की ईडर शाखा प्रचलित की थी। वे २५ वर्ष
जिनका समय १५००-१५११ ई० निश्चित होता है । पट्टाकी आयु में दि० साधु बन गए थे और लगातार २२ वर्ष
वली से प्रतीत होता है कि वे 'गोम्मटसार' में बड़े प्रवीण तक दिगम्बरत्व धारण किये रहे। उन्होंने उत्तरी गुजरात
थे। कर्नाटक में प्रमुख व्यक्ति मल्लिराय, भैरवराय, देवे द्रके अनेकों मंदिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई थी
राय आदि के द्वारा वे सम्मानित हुए थे। जिनकी तिथि १४३३ से १४४२ ई० है। उन्होंने प्रश्नोत्त- शुमचन्द-ये विजयकीर्ति के उत्तराधिकारी थे। रोपासकाचार, पावपुराण, सुकुमालचरित्र, मूलाचारप्रदीप, (१५१६-१५५६ ई०) जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यों का श्रीपालचरित्र, यशोधरचरित्र, तत्वार्थसार दीपिका प्रादि केवल उनकी विद्वता वश ही उल्लेख किया है 'जैन सिद्धांत श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना की। वे 'पुराण मुख्योत्तम शास्त्र- भास्कर, व० १ अंक ४ में १०३ प्राचार्यों की गुर्वावली कारी' और 'महाकवित्वादि कला प्रवीण' मादि विश्लेषणों प्रकाशित हुई थी, जिसका प्रारम्भ गुप्ति गुप्त और अन्त से विभूषित थे जैसा कि शुभचन्द्र ने पाण्डवपुराण में उनके पद्मनंदी से होता है। उनमें शुभचन्द का ६० वा नम्बर है विषय में लिखा है "कोतिः कृता येन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थ वे साकवाट (सागवाड़ा-राजस्थान) की गद्दी के भट्टारक की सकला पवित्रा।"
थे। पट्टावली से प्रतीत होता है कि वे तर्क, व्याकरण, भुवनकोति-ये संवत् १५०८-१५२७ (१४५१-१४७० साहित्य, प्राध्यात्म शास्त्र मादि विषयों के महान ज्ञाता ई०) में सकलकीति के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने कई थे। उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी।