Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 302
________________ २६६ ही सुन्दर लड़की लाकर दूं तो तुम मुझे क्या दोगे ? राजा कहलवाया कि सोरठ को सूचना दो कि उसका मामा ने कहा-पाधी गद्दी यानी आधा राज्य ।। पाया है। सोरठ ने कहलवाया कि मेरा कोई मामा नहीं वीज्या सोरठ को प्राप्त करने के लिए जोगी की है। वीज्या बाहर से चिल्लाया-'चल ! मेरे साथ चल । पोशाक धारण कर देवी के मंदिर में पहुंचा और सोरठ नही तो तुम्हारी दासी लीलावती को पीटूंगा और टुकड़ेकी प्राप्ति की प्रार्थना करने लगा। मंदिर में वोज्या के टुकड़े कर डालूंगा।' इस पर सोरठ बोली-'दासी को भजन इतनी मस्ती और भक्ति भरे लग रहे थे कि सुनने मत पीट, मैं ही तुम्हारे साथ चलने को तत्पर हूँ।' वालों की खासा भीड़ सी इकट्ठी हो गई। मंदिर के पास xxx ही बावड़ी थी जहाँ सोरठ की दासी पानी भरने पाई, प्रागे-मागे वीज्या, उसके पीछे-पीछे सोरठ विलाप उसने भी वीज्या के भजन सुने । हवेली पाकर सोरठ से सारी बात कह सुनाई। सोरठ ने उस जोगी को अपने करती हुई धीरे-धीरे चल रही है। बीज्या तेज भागता हुमा हर्ष के मारे फूला मामा के पास पहुंचा और शुभ यहां बुलाने के लिए कहा। दासी गई जोगी को बुला लाई। जोगी ने अच्छे-अच्छे भजन सुनाए । ज्यों ही सोरठ संवाद कह सुनाया । सोरठ रास्ते में ही सखियों के ठिकाने उसे भिक्षा देने लगी कि उसने कहा रुक गई। साध्वियों के दर्शन कर साध्वी बनने की भावना आई। साध्वियों ने कहा-'तुम्हें दीक्षा दिलाने वाला अनधन लछमी म्हारे पन्त धणी पो बाई जी कौन है ?' बोरा भरपा रे भंडार । थारा तो हि बड़ा रो हार देवो नी बाई जी, सोरठ ने उत्तर दिया-पाज्ञा देने वाले भी पाप है दो दन पेरे म्हारी जोगड़ी। मारने वाले भी पाप है सोरठ ने उसे खूब डांटा और वहाँ से भगा दिया । और तारने वाले भी आप हैं।' जोगी (वीज्या) ने नई तरकीव सोची। एक दिन वह ऊंट सोरठ ने दीक्षा धारण की। वीज्या महल में सोरठ पर सवार होकर सोरठ का मामा बनकर पाया । दासी से के पाने के स्वप्न देखता रह गया। 'अनेकान्त' के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनश्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे शीघ्र ही अनेकान्त के ग्राहक बनें। इससे समूचे जैन-समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध-पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना आवश्यक है। व्यवस्थापक अनेकान्त

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