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ऐतिहासिक उपन्यास
दिग्विजय
मानन्दप्रकाश जैन, बसूप्रसाद मैन [यह उपन्यास भगवान् ऋषमदेव के पुत्र सम्राट् मरत और बाहुबलि के प्रसिद्ध पुट को लेकर चला है। पुरानी कथा, किन्तु ऐसा नयापन कि पाठक रस विभोर हो उठे। इस विशा में पानम्बप्रकाश जैन की लेखनी से सभी हिन्दी पाठक अवगत हो चुके हैं। यह उनकी नवीनतम कृति है।] . -सम्पादक
उनका मोह सृष्टि की स्वच्छदन्ता के प्रति था । प्रकृतियां समृद्धि और वैभव की विशाल नगरी अयोध्या का
इतनी भिन्न होते हुए भी दोनों भाइयों का स्नेह एक ऐसे दैनिक जीवन क्रम उत्साह और उत्सव से उमडा चलता था, अटूट और दृढ़ बंधन से बंधा था, जो दो सहोदरों में ही इक्ष्वाकुवंश का सूर्य अपनी संपूर्ण कलाओं सहित अयोध्या संभव हो सकता है। के जन जीवन पर छाया हुआ था, क्या साधुसंतों का समा- अयोध्या में एक दिन प्रासाद और उत्सव का बाजार गम, क्या आकाश को चूमने वाले भवनों का निर्माण, सभी गरम हो गया। सूर्य का प्रखर प्रकाश गगनचुम्बी भट्टामें अयोध्या अनुपम थी।
लिकाओं से टकराता अयोध्या के राजमार्ग पर छा गया कलाविदों ने अपनी कला से अयोध्या का श्रृंगार किया था। जहां देखो, जिधर देखो, मानव प्राकृतियां जयनाद था नित्य ही एक न एक कला-प्रदर्शन होता था। युद्ध के करती दृष्टिगोचर हो रही थीं। छज्जे, अटारियां, छत और दिनों में लोग सामूहिक रूप से शस्त्र संभाल लेते थे । शांति राजमार्ग सभी, लोगों से अटे पड़े थे। अश्वारोही सैनिक काल में गायनवादन और संतों की वाणी समान भाव से व्यवस्था करते हुए इधर उधर दौड़ रहे थे। धर्म की प्रतीक सुनी जाती थी। बल, विभूति और कला, किसी में कोई पीली ध्वजाएं चारों मोर दृष्टि की झिलमिली दे रही थीं। अयोध्या का सामना नहीं कर सकता था।
राजमार्ग पर फूलों का बिस्तरा बिछा पड़ा था। ___ महाराज ऋषभदेव के स्वर्ग शासन में शेर और बकरी कुछ देर में ही राजमहल की भोर से एक भव्य रथ एक घाट पानी पीते थे, शौर्य का पुतला भरत, तेजस्विता चला माता दिखाई दिया। साथ में दोनों ओर उद्यत अंगका स्तूप बाहुबली, मानों किसी योद्धा की दो बाहों की रक्षकों का दल था। जनता ने अपनी उत्सुक दृष्टियां उस तरह अयोध्या के जीवन संघर्ष का संचालन कर रहे थे। वे ओर घुमाई और 'कुमार बाहुबली की जय' के निनाद से महाराज ऋषभदेव के सभी पुत्रों में अग्रणी थे । पाकाश गूंज उठा। रथ तीव्र गति से दोनों भोर की जन
समस्त भूमंडल पर एकछत्र राज्य की स्थापना महा. पंक्तियों के बीच से अयोध्या के परकोटे के मुख्य द्वार की बली भरत का दैनिक स्वप्न था। उसकी यह अभिलाषा ओर दौड़ता हुमा चला गया। उसकी अनवरत विजयों के साथ एकाकार हो कर बढ़ रही दक्षिण के एक छोटे से राज्य पोदनपुर को जीत कर थी। वह जिधर अपने अश्व का बागडार माड़ दता था, भरत सेनामों सहित अयोध्या वापस पा रहा था। यह स्वागराज्याधीश टूट पतंगों की नाई उसके चरणों पर मा गिरते
तोत्सव उसी की अगवानी करने के लिए हुआ था । बाहु
बली मुख्य द्वार पर उसका स्वागत करने के लिए गए थे। बाहुबली सौम्य, शांत और सुन्दर थे। इतने सुन्दर थे अब प्रजा की उत्सक निगाहें कोटद्वार की दिशा में कि सारी अयोध्या उन्हें कामदेव के नाम से पुकारती थी। लगी थीं। उनके हृदयों पर भरत का सिक्का था। उनकी जीवन को विभिन्न रूपों में देखकर उसमें रस लेना उनकी निगाहों में उसके शौर्य और पराक्रम का आदर था । भरत प्रवत्ति थी। स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा था। उनके स्वप्नों का खिलौना था। भरत उनका प्रिय था,