Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 293
________________ मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में प्रेमभाव २५७ कवि ने सुमति रानी को 'राधिका' माना है । उसका बहुत दिन बाहर भटकने के बाद चेतन राजा माज सौन्दर्य और चातुर्य सब कुछ राधा के ही समान है । वह घर पा रहा है । सुमति के प्रानन्द का कोई ठिकाना नहीं रूप सी रसीली है और भ्रम रूपी ताले को खोलने के लिए है। वर्षों की प्रतीक्षा के बाद पिय के प्रागमन की बात कीली के समान है । ज्ञान-भानु को जन्म देने के लिए प्राची सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति मालाहै और प्रात्म-स्थल में रखने वाली सच्ची विभूति है। दित होकर अपनी सखी से कहती है, "हे सखी देतो आज अपने धाम की खबरदार और राम की रमनहार है। ऐसी चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूसरों के वश सन्तों की मान्य, रस के पथ और ग्रन्थों में प्रतिष्ठित और में होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है । अब शोभा की प्रतीक राधिका सुमति रानी है। तो वह भगवान जिन की आज्ञा को मानकर परमानन्द के समति अपने पति 'चेतन' से प्रेम करती जिसे अपने गुणों को गाता है। उसके जन्म जन्म के पाप भी पलायन पति के अनन्त ज्ञान, बल और वीर्य वाले पहलू पर एक कर गए हैं। अब तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे निष्ठा है। किन्तु वह कर्मों की कुसंगत में पड़कर भटक गया उसे संसार में फिर नहीं आना पड़ेगा। अब वह अपने मन है अत: बड़े ही मिठास भरे प्रेम से दुलराते हुए समति कहती भाये परम प्रखंडित सुख का विलास करेगा'। है, "ये लाल तुम किसके साथ कहाँ लगे फिरते हो । आज पति को देखते ही पत्नी के अन्दर से परापेपन का तुम ज्ञान के महल में क्यों नहीं पाते। तुम अपने हृदय-तल भाव दूर हो जाता है। वैधत्व हट जाती है और अद्वैधत में ज्ञानदृष्टि खोलकर देखो, दया, क्षमा, समता और उत्पन्न हो जाता है। ऐसा ही एक भाव बनारसीदास ने शांति जैसी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवा में खडी हुई हैं। उपस्थित किया है। सुमति चेचन से कहती है, "हे प्यारे एक से एक अनुपम रूप वाली हैं । ऐसे मनोरम वातावरण चेतन ! तेरी ओर देखते ही परायेपन की गगरी फूट गई। को भूलकर और कहीं न जाइये । यह मेरी सहज प्रार्थना है। दुविधा का अंचल हट गया और समूची लज्जा पलायन १. रूप की रसीली भ्रम कुलप की कीली, कर गई। कुछ समय पूर्व तुम्हारी याद आते ही मैं तुम्हें शील सुधा के समुद्र झीलि सीलि सुखदाई है। खोजने के लिये अकेली ही राज पक्ष को छोड़कर भयावह प्राची ज्ञान मान की अजाची है निदान की, कान्तार में घुस पड़ी थी। वहाँ काया नगरी के भीतर तुम सुराची निरवाची ठौर साँची ठकुराई है । धाम की खबरदार राम की रमनहार, अनन्त बल और ज्योति वाले होते हुए भी कर्मों के प्रावरण राधा रस पंथनि में ग्रन्थनि में गाई है। में लिपटे पड़े थे। अब तो तुम्हें मोह की नींद छोड़ कर सन्तन की मानी निरवानी रूप की निसानी, सावधान हो जाना चाहिए"। यात सुबुद्धि रानी राधिका कहाई है। नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, दमोह, १. देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवे । पृ० ७६. काल अनादि फिरचो परवश ही, अब निज सुबहि चिताब, २. कहां कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल, __ देखो ॥१॥ प्रावो क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि से ती, जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहि बहावै । कसी कैसी नीकी नारी ठाढ़ी हैं टहल में । श्री जिन आज्ञा सिर पर धरतो, परमानंद गुण गावै ॥२॥ एक तें एक बनीं सुन्दर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में । देत जलाजुलि जगत फिरन को ऐसी जुगति बनावै । ऐसी विधि पाय कहूँ भूलि और काज कीजे, विलस सुख निज परम प्रखंडित, भैया सब मन भावै॥३॥ एतौ कह्यो मान लीजै वीनती सहल में। देखिये वही, परमार्थ पद पंक्ति, १४वां पर, पृ० ११४. 'भैया' भगवतीदास, ब्रह्मविलास, कार्यालय बंबई, द्वितीया वृत्ति, सन १९२६ ई०, शत प्रष्टोत्तरी, २. बालम तुहु तन चितवन गागरि फूटि । २७ पद्य, पु.१४. मंचरा गौ फहर

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