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मध्यकालीन न हिन्दी काव्य में प्रेममाव
फिरल ६
भी दूर हो गई है। शुष्क पृथ्वी की देह भी हरियाली को पाकर दिप उठी है। किन्तु राजुल का न तो पिय श्राया और न पतियां " ठीक इसी भांति एक बार जायसी की नागमती भी विलाप करते हुए कह उठी थी। "चातक के गुस में स्वाति नक्षत्र की बूंदें पड़ गई, और समुद्र की सब सीपें भी मोतियों से भर गईं। हंस स्मरण कर-कर के अपने तालाबों पर माये, सारस बोलने लगे और लंजन भी दिखाई पड़ने लगे । कांसों के फूलों से वन में प्रकाश हो गया, किंतु हमारे कन्त न फिरे, कहीं विदेश में ही भूल गये । " कवि भवानीदास ने भी नेमिनाथ बारहमासा लिखा था, जिसमें कुल १२ पद्य हैं । श्री जिनहर्ष का 'नेमि बारहमासा" भी भी एक प्रसिद्ध काव्य है। उसके १२ सर्वयों में सौंदर्य धीर श्राकर्षण व्याप्त है । श्रावण मास में राजुल की दशा को उपस्थित करते हुए कवि ने लिखा है । " श्रावण मास है, घनघोर घटायें उन्न भाई है। झलमलाती हुई बिजुरी चमक रही है, उसके मध्य से बज सी ध्वनि फूट रही है, जो राजुल को विष बेलि के समान लगती है । पपीहा पिउपिउ रट रहा है। दादुर धौर मोर बोल रहे हैं। ऐसे समय
१. उमटी विकट घनघोर घटा चिहुँ धोरनि मोरनि सोर मचायो । चमके दिवि दामिनि यामिनि कुंभय भामिनि कूं पिय को संग भायो । लिव चातक पीठ ही पीड़ सई भई राजहरी मुंद्र देह दिपायो । अली, श्रावण
पतियां पं न पाई री प्रीतम की आयो पं नेम न भायो ।
कवि लक्ष्मीवल्लभ, नेमिराजुल बारहमासा, पहला पद्य, इसी प्रबन्ध का छठा अध्याय, पृष्ठ ५६४ २. स्वाति बूद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे । सरवर संवरि हंस चलि आये । सारस कुरलहिं खंजन देखाये ॥ भा परगास कांस वन फूले कंत न फिरे विदेसहि भूले ॥ जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल संपादित, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, तृतीय संस्करण, वि० सं० २००३, ३०।७, पृष्ठ १५३
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में यदि नेमीश्वर मिल जायें तो राजुन अत्यधिक सुखी हो।" प्राध्यात्मिक होलि
जैन साहित्यकार प्राध्यात्मिक होलियों की रचना करते रहे हैं। जिनमें होली के अंग उपांगों का आत्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमें आकर्षण तो होता ही है । पावनता भी आ जाती है। ऐसी रचनाओं को 'फागु' कहते हैं । कवि बनारसीदास के 'फागु' में श्रात्मारूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है । कवि ने लिखा है, "सहज धानन्दरूपी बसन्त भा गया है और शुभ भावरूपी पत्ते लहलहाने लगे हैं । सुमतिरूपी कोकिला गहगही होकर गा उठी है, और मनरूपी मौरे मदोन्मत्त होकर गुंजार कर रहे हैं। सुरतिरूपी श्रग्नि ज्वाला प्रकट हुई है, जिससे भ्रष्ट कर्मरूपी वन जल गया है। मगोचर प्रमूत्तिक आत्मा धर्मरूपी फाग
खेल रहा है। इस भाँति श्रात्मध्यान के बल से परम ज्योति
प्रकट हुई, जिससे भ्रष्टकर्म रूपी होली जल गई है और आत्मा शांत रस में मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा ।"
जिनहर्ष, नेमि बारहमासा,
१. घन की घनघोर घटा उनही, बिजुली चमकंति झलाहलि सी । विधि गाज अगाज अवाज करंत सु, लागत मो विषवेति जिसी ॥ पपीया पिउ पिउ रटत रयण जु, दादुर मोर वदै ऊलिसी । ऐसे श्रावण में यदु नेमि मिले, सुख होत कहै जसराज रिसी । इसी प्रबन्ध का छठा अध्याय, पृ० ५०२ । २. विषम विरष पूरो भयो हो, भायो सहज वसंत ॥ प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥ सुमति कोकिला गहगही हो, वही मपूरव बाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ताउ ॥ शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होंहि अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेल विस्तार ॥ सुरति पनि ज्याना जगी हो, समकित भानु धमंद हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरंद ॥ परम ज्योति प्रगट भई हो, लागी होलिका भाग । आठ काठ सब जरि बुझे हो गई तलाई भाग ॥ बनारसीदास, बनारसीविलास ।