Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 298
________________ ५६२ प्रकांत कवि धानत राय ने दो जत्थों के मध्य होली की रचना की है। एक ओर तो बुद्धि, दया, क्षमारूपी नारियां हैं और दूसरी ओर आत्मा के गुणरूपी पुरुष हैं । ज्ञान और ध्यानरूपी डफ तथा ताल बज रहे हैं, उनसे अनहद रूपी घनघोर निकल रहा है है । धर्मरूपी लाल रंग का गुलाल उड़ रहा है और समतारूपी रंग दोनों हीं पक्षो ने घोल रक्खा है। दोनों ही दल प्रश्न के उत्तर की भांति एक दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोड़ते हैं। इधर से पुरुषवर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधर से स्त्रियां पूछती हैं कि तुम किसके छोरा हो । आठ कर्मरूपी काठ अनुभव रूपी अग्नि में जल-बुझ कर शांत हो गये । फिर तो सज्जनों के नेत्र रूपी चकोर, शिवरमणी के आनन्दकन्द की छति को टकटकी लगाकर देखते ही रहे'" भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियों के साथ, श्रद्धा नगरी में आनन्द रूपी जल से रुचि रूपी केशर घोल कर और रंगे हुये नीर को उमंगरूपी पिचकारी में भर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोड़ा। इस भांति उसने अत्यधिक आनन्द का अनुभव किया । १. भायो सहज बसंत सेलें सब होरी होरा। उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी, इत जिय रतनसजे गुन जोरा ॥ १ ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल वजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । गुलाल उड़त है, धरम सुहाग समता रंग दुहू ने घोरा ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि करि जोरा । नारि तुम काकी, इत तें कहे उत तं कहै कौन को छोरा ॥३॥ आठ काठ अनुभव पावक में, जल बुझ शान्त भई सब श्रोरा । द्यानत शिव श्रानन्द चन्द छवि, देखहि सज्जन नैन चकोरा ||४|| द्यानतराय द्यानतपद संग्रह । कलकत्ता, ८६वाँ पद पृष्ठ १६,२७ २. सरध। गागर में रुचि रूपी, केसर घोरि तुरंत । श्रानन्द नीर उमंग पिचकारी, छोड़ो नीकी मंत ॥ होरी खेलोंगी, आये चिदानन्द कन्त ॥ भूधरदास, 'होरी खेलोंगी' पद, अध्यात्मपदावली, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृष्ठ ७५ । वर्ष १५ अनन्य प्रेम प्रेम में अनन्यता का होना अत्यावश्यक है । प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है मां-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया; क्योंकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरें नहीं 1 पढ़ने पाई थीं। किन्तु प्रेम भांवरों की अपेक्षा नहीं करता । राहुल को तो शिवा नेमीश्वर के अन्य का नाम भी रुचि कारी नहीं था। इसी कारण उसने मां-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे तात! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लड़की के लिए भी गालियाँ निकालते हो। तुम्हें हर बात सम्हाल कर कहना चाहिए। सब स्त्रियों को एक सी न समझो । मेरे लिये तो इस संसार में केवल नेमि प्रभु ही एकमात्र पति है।" महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाँति प्रध्यात्मपक्ष में घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका । कबीर में दाम्पत्य भाव है और श्राध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नहीं, जैसा कि मानन्दमन में है। जायसी के प्रबन्ध-काव्य में अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमें वह एकतानता नहीं निभ सकी है, जैसी कि श्रानन्दघन के मुक्तक पदों में पाई जाती है । सुजान वाले घनानन्द के बहुत से पद भगवद्भक्ति में जैसे नहीं रूप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घटे हैं। महात्मा श्रानन्दघन जैनों के एक पहुँचे हुए साधु ये। उनके पदों में हृदय की तल्लीनता है । उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, "सुहागिन के हृदय में निर्गुण २. काहे न बात सम्भाल कही तुम जानत हो यह बात भली है । गानियां काढ़त हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है ॥ मैं सब को तुम तुल्य गिनी तुम जानत ना यह बात रली है। या भव में पति नेमि प्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है । विनोदीलाल नेमि व्याह, जैन सिद्धान्त भवन धारा की हस्तलिखित प्रति ।

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