Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 294
________________ २५८ अनेकान्त एक सखी सुमति को लेकर, नायक चेतन के पास का वर्णन करने वाले कई रास 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में मिलाने के लिए गई। पहले दुतियां ऐसा किया करती थीं संकलित हैं। दूसरे प्रकार के विवाहों में सबसे प्राचीन वहां वह एक सखी अपनी बाला सुमति की प्रशंसा करते हुए जिनप्रभसूरि' का 'अन्तरंग विवाह' प्रकाशित हो चुका है। चेतन से कहती है, "हे लालन ! मैं अमोलक वाल लाई हैं उपर्युक्त सुमति और चेतन दूसरे प्रकार के पति और पत्नी तुम देखो तो वह कैसी अनुपम सुन्दरी है। ऐसी नारी तो हैं। इसी के अन्तर्गत वह दृश्य भी प्राता है, जबकि पात्मा संसार में दूसरी नहीं है। और हे चेतन ! इसकी प्रीति भी रूपी नायक 'शिवरमणी के साथ विवाह करने जाता है। तुझ से ही सनी हुई है। तुम्हारी इस राधे की एक दूसरे प्रजयराज पाटणी के 'शिवरमणी विवाह' का उल्लेख हो पर अनन्त रीझ है । उसका वर्णन करने में मैं पूर्ण असमर्थ चुका है। वह १७ पद्यों का एक सुन्दर रूपक काव्य है। उन्होंने जिन जी की रसोई में तो विवाहोपरान्त सुस्वादु भोजन और वन विहार का भी उल्लेख किया है। माध्यात्मिक विवाह बनारसीदास ने तीर्थकर शांतिनाथ का शिवरमणी इसी प्रेम के प्रसंग में आध्यात्मिक विवाहों को लिया लपा से विवाह दिखाया है। शांतिनाथ विवाह मंडप में पाने है जा सकता है। ये 'विवाहला', 'विवाह', 'विवाहलउ' और वाले हैं। होने वाली बधू की उत्सुकता दबाये नहीं दबती। न 'विवाहलो' आदि नामों से अभिहित हुए हैं। इनको दो वह अभी से उनको अपना पति मान बैठी है । वह अपनी भागों में विभक्त किया जा सकता है-एक तो वह जब सखी से कहती है, "हे सखी आज का दिन अत्यधिक दीक्षा ग्रहण के समय प्राचार्य का दीक्षाकुमारी अथवा संय मनोहर है, किन्तु मेरा मन भाया अभी तक नहीं आया। मश्री के साथ विवाह संपन्न होता है, और दूसरा वह जब वह मेरा पति सुख-कंद है और चन्द्र के समान देह को मात्मा रूपी नायक के साथ उसी के किसी गुण रूपी धारण करने वाला है । तभी तो मेरा मन-उदधि प्रानन्द से कुमारी की गाँठे जुड़ती हैं। इनमें प्रथम प्रकार के विवाहों आन्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र-चकोर पिउ सुधि पावत वन मैं पैसिउ वेलि । सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति की छाड़त राज डगरिया भयउ अकेलि बालम० ॥३॥ कीत्ति संसार में फैली हुई है । वह दुख रूपी अंधकार के काय नगरिया भीतर चेतन भूप । समूह को नष्ट करने वाली है। उनकी वाणी से अमृत करम लेप लिपटा बल ज्योति स्वरूप, बालम० ॥४॥ झरता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त चेतन बुझि विचार धरहु सन्तोष । हुए। राग दोष दुइ बंधन छूटत मोष, बालम० ।।१३॥ बनारसी विलास, अध्यात्म पद पंक्ति, पु० २२८,२२६. १. देखिए 'हिन्दी के भक्ति काव्य में जैन साहित्य कारों १. लाई हों लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी का योगदान बनी है। छठा अध्याय' पृ० ६५६. ऐसी कहुँ तिहुँ लोक में सुन्दर, और न नारि अनेक २. सहि एरी! दिन आज सुहाया मुझ भाया पाया धनी हैं। नहीं घरे। याहि ते तोहि कहूँ नित चेतन, याहू की प्रीति जु तो सौं सहि एरी ! मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा सनी है। देह धरे॥ तेरी और राधे की रीमि अनंत जु मो पै कहूँ यह जात चन्द जिवां मेरा वल्लभ सोहे, नैन चकोरहिं सुक्ख गनी है। करै । भैय्या भगवतीदास, ब्रह्मविलास, बम्बई, १९२६ ई. जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दुख तिमर वितान शत प्रष्टोत्तरी, २८ वां पद्य, पृ० १४

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