Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 292
________________ मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में प्रेमभाव डा० प्रेमसागर जैन एम. ए. पी-एच. डी. भक्तिरस का स्थायीभाव भगवद्विषयक अनुराग है । इसी की शाण्डिल्य ने 'परानुरक्तिः' कहा है' । परानु रक्तिः गम्भीर अनुराग को कहते हैं । गम्भीर अनुराग ही प्रेम कहलाता है । चैतन्य महाप्रभु ने रति अथवा अनुराग के गाढ़े हो जाने को ही प्रेम कहा है" । भक्ति रसामृत सिन्धु में लिखा है, "सम्यङ मसृणित स्वान्तो ममत्वातिशयोक्तिः भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेम निगद्यते । " । प्रेम दो प्रकार का होता है-लौकिक और अलौकिक भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम के अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान का श्रीतार मान कर उसके प्रति लौकिक प्रेम का भी प्रारोपण किया जाता है किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्व सदैव छिपा रहता है। इस प्रेम में समूचा आत्म समर्पण होता है। और प्रेम के प्रत्यागमन की भावना नहीं रहती । अलौकिक प्रेम जन्य तल्लीनता ऐसी विल क्षण होती है कि द्वेष भाव ही मृत हो जाता है । फिर प्रेम के प्रतीकार का भाव कहाँ रह सकता है । नारियाँ प्रेम की प्रतीक होती हैं। उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस शाला है, जिसमें प्रेम भाव को लहलहाने में देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भी कांता भाव से भगवान की प्राराधना करने में अपना अहोभाग्य समझता है। भक्त 'तिया' बनता है और भगवान 'पिय' । यह दाम्पत्य भाव का प्रेम जैन कवियों की रचनाओं में भी उपलब्ध होता है । बनारसी दास ने अपने 'अध्यात्म गीत' आत्मा को नायक और 'सुमति' को उसकी पत्नी बनाया १. शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, १२, पृ० १ २. चैतन्य चरितामृत, कल्याण, भक्ति श्रंक, वर्ष ३२, अङ्क १, पृ० ३३३. ३. श्री रूप गोस्वामी, हरि भक्ति रसामृत सिन्धु, गोस्वामी दामोदार शास्त्री सम्पादित ! अच्युत ग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण, १।४।१ है । पत्नी पति के वियोग में इस भांति तड़फ रही है, जैसे जल के बिना मछली । उसके हृदय में पति से मिलने का चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नाम की सखी से कहती है कि पति के दर्शन पाकर मैं उसमें इस तरह मग्न हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है । मैं अपनपा खोकर पिय सूं मिलूंगी, जेसे भोला गिर कर पानी हो जाता है ' । अन्त में पति तो उसे अपने घर में ही मिल गया और वह उससे मिलकर इस प्रकार एकमेक हो गई कि द्विविधा तो रही ही नहीं । उसके एकत्व को कवि ने अनेक सुन्दर सुन्दर दृष्टान्तों से पुष्ट किया है। वह करतूति है और पिय कर्ता, वह सुख-सींव है और पिय सुखसागर, वह शिवनींव है और पिय शिवमंदिर, वह सरस्वती है और पिय ब्रह्मा, वह कमला है और पिय माधव, वह भवानी है और पति शंकर, वह जिनवाणी है और पति जिनेन्द्र | १. २. मैं विरहिन पिय के श्राधीन, त्यौं तलफ ज्यों जल बिन मीन ||८|| होहु मगन मैं दरशन पाय, ज्यों दरिया में बूंद समाय ||६|| पिय को मिलों अपनपो खोय, श्रीला गल पाणी ज्यौं होय ॥१०॥ बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, पृ० १६१. पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि । पिय मो करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति । पिय सुख सागर में सुख सींव, पिय शिव मन्दिर में शिवनींव । पिय ब्रह्मा में सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम । पिय शंकर मैं देवि भावनि, पिय जिनवर मैं केवल वानि ।

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