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कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन
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उनके भनेकों शिष्य थे, तथा उन्होंने विरोधियों को अनेकों तर के रूप में प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत पद्यों का विशेष बार परास्त किया था।
उरलेख किया है। उन्होंने गोम्मटसार, तस्वार्थ सूत्र, द्रव्यसन् १९५१ ई. में अपना पाण्डवपुराण समाप्त करते - संग्रह और ज्ञानार्णव से अनेक उद्धरण दिये हैं जिससे उनकी हुए शुभचन्द ने अपने लिखे २८ प्रन्यों का उल्लेख किया है। टीका बहुत विस्तृत और उपयोगी हो गई है। इसमें कुछ जैसे चन्द्रप्रभुचरित, पमनाभ चरित, प्रद्युम्न चरित, जीवंधर अंश लक्ष्मीचन्द द्वारा भी प्रक्षिप्त हुआ है। फिर भी एक चरित, चन्दनकथा, नन्दीश्वरकथा और पांडव पुराण आदि, धार्मिक पुरुष के लिए यह टीका वरदान स्वरूप है, ७ कथा ग्रंथ तथा त्रिशंच्चतुर्विशन्ति पूजा, सिद्धार्चनम्, क्योंकि इसमें विभिन्न विषयों का विवरण एक साथ मिल सरस्वती पूजा, चिन्तामणि पूजा, कर्मदहन विधान, गणधर- जाता है, जो विभिन्न प्राचार्यों के ग्रन्थों से शब्दशः उद्धृत वलय विधान, पल्योपम विधान, चरित्रशुद्धि विधान, चतु- किया है। जैसे वट्टकेर के मूलाचार की वसुनन्दी टीका. रिंशदाधिक द्वादशव्रतोद्यापन, सर्वतोभद्र विधान, मादि १० श्रीविजय की विजयोदया (भगवती आराधना) पूज्यपाद पूजा ग्रन्थ तथा पार्श्वनाथकाव्यपंजिका टीका, आशाधर की सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार की नेमिचन्द की टीका तथा पूजावृत्ति, स्वरूपसंबोधन वृत्ति, अध्यात्म पद्य टीका, आदि मूलगाथाएं देवसेन की पालाप पद्धति, द्रव्य संग्रह की ब्रह्म४ टीकायें तथा संशयवदनविदारण, अपशब्द खंडन, तत्त्व देव कृत टीका, चामुण्डराय का चारित्रसार, तत्वार्थ सूत्र पर निर्णय, १ स्याद्वाद, अंगपण्णत्ती, शब्द चिन्तामणि, और ३ श्रुतसागर की टीका , कर्म प्रकृति त्रैलोक्य सार आदि । स्तोत्र ग्रंथ रचे । उनका साहित्यिक कार्य १५५१ ई०के बाद
शुभचन्द ने कई विद्वानों और उनकी प्रकृतियों का भी भी चलता रहा जैसा कि उन्होंने पाश्विन सुदी ५ सं० १५७३
नामोल्लेख किया है। जैसे कर्म प्रकृति (पृष्ठ ३८६ पर) (१५१६ ई.) में अमृत चंद्रकृत समयसार की टीका पर
रविचन्द का आराधनासार (पृ० २३४, ३६१ पर) दोनों 'अध्यात्म तरंगिणी' टीका लिखी थी। सं० १६०८(१५५१
कृतियाँ अप्रकाशित हैं, गन्धर्वाराधना (पृ० ३६२ पर) ई.) में त्रिभुवनकीर्ति की प्रार्थना पर साकवाट में उन्होंने
जिसका उल्लेख ब्रह्मदेव ने भी अपनी द्रव्य संग्रह की अपना पांडवपुराण पूर्ण किया था जिसकी प्रति तैयार
संस्कृत टीका में किया है, नयचक्र (पृ. २०० पर) करने में श्रीपालवर्णी ने मदद की थी, १५५४ ई० में उन्होंने
यत्याचार वसुनंदी कृत (पृ० १०६, ३०६, ३३०) अष्टसंस्कृत में करकंडु चरित्र पूर्ण किया था। माघ सुदी १० से
सहस्री, प्राप्त मीमांसा (पृ० ११६, १५५, १६२) प्रमेय१६१३ (१५५६ ई.) में उन्होंने क्षेमचन्द और सुमति
कमलमार्तण्ड, परीक्षा (पृ० १७६ पर) आदि, उन्होंने पार्ष कीति के अनुरोध पर कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका समाप्त
मागम और सूत्र शब्दों का प्रयोग क्रमशः जिनसेन गुणभद्र की थी। उसके पश्चात भी उन्होंने समवशरण पूजा, सहस्र
कृत महापुराण, गोम्मटसार तथा तत्त्वार्थसूत्र के लिए किया नाम विमान शुद्धि विधान सम्यक्त्व कौमुदी, सुभाषितार्णव,
है । उन्होंने कल्पसूत्र के कुथ अंश तथा शुक्लयजुर्वेद संहिता सुभाषित रत्नावली, तर्कशास्त्र, प्रादि ग्रन्थ लिखे। इस
की कुछ समस्याओं का उल्लेख किया है जो सोमदेव के प्रकार शुभचन्द्र का साहित्यिक कार्य लगभगग ४० साल
यशस्तिलक चंपू में भी उपलब्ध है। तक चलता रहा।
शुभचन्द की कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका-शुभचन्दकृत इस टीका का मूल उद्देश्य स्वामि कुमार लिखित १२ कातिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका, वृत्ति भी कहलाती है जिस अनप्रेक्षामों की विशद व्याख्या करना ही था, पर शुभचन्द की ग्रन्थान संख्या ७२५६ एक पाण्डुलिपि में लिखी हुई ने अनुप्रेक्षाओं की व्याख्या के साथ-साथ इसे एक विशद है। इस टीका के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इससे संग्रह ग्रन्थ बना दिया है, जिससे कुमार की रचना का पूर्व ऐसी टीकारूप और कोई अन्य कृति रही होगी जिसे स्पष्टीकरण और भी अधिक अच्छी तरह से हो जाता है। ही शुभचन्द ने विकसित और विस्तृत किया हो। उन्होंने पं० जयचन्द जी की हिन्दी वचनिका ने भी स्वामिकुमार की प्राकृत से संस्कृत परिवर्तन साधारण ही किया है, पर प्रश्नो- कृति को अत्यधिक प्रसिद्धि प्रदान की।