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कार्तिकेयानुप्रेक्षा : एक अध्ययन
ग० ए० एन० उपाध्ये एम. ए. ग. लिट्
कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का प्रकाशन सभी सन् १९६० में रायन शास्त्रमाला, प्रगास से हुमा है जिसके सम्पादक सामादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हैं। इस संस्करण में उनकी एक विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना है। अनुवादक ने उसका सारांश यहाँ दिया है। विस्तृत अध्ययन के लिए मूल प्रस्तावना देखना चाहिए।
-सम्पादक
स्वामी कार्तिकेय की "बारस अनुवेक्खा", जो कार्ति- साम्यासः" अथवा "अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा" इस केयानप्रेक्षा के नाम से भी प्रसिद्ध है, एक ख्यात एवं श्रेष्ठ प्रकार अनुप्रेक्षा के लक्षणों पर मुख्यतया दो दृष्टियां प्राप्त रचना है, जिससे जैन श्रावकों वा साधुओं ने अधिक धार्मिक होती हैं पर प्रागे चलकर व्याख्याकारों ने इन प्रों को प्रेरणा प्राप्त की है, फल स्वरूप जैनग्रंथ-भंडारों में इस ग्रंथ मिश्रित कर दिया है। की अनेकों पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। इनमें से कुछमें भ.
अनुप्रेक्षा साधारणतया यात्मोद्धार का विषय है जिसमें शुभचन्द्र की संस्कृत टीका भी उपलब्ध होती है । इस ग्रंथ
प्रायः जैनदर्शन एवं सिद्धान्तों के सभी विषय सम्मिलित हो की तैयारी के लिए अनेकों हस्तलिखित प्रतियों का प्रयोग
जाते हैं । वे १२ होती हैं-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व किया गया है। उनमें सर्वाधिक प्राचीन प्रति सं० १६०३
अन्यत्व, अशुचि पाश्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोषि दुर्लभ की भंडारकर प्रोरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की है।
और धर्मस्वास्यातत्व। जैन दर्शन में अनुप्रेक्षा का स्थान यह पांडुलिपि भ० शुभचन्द्र कृत इस ग्रंथ की संस्कृत टीका
बड़ा महत्वपूर्ण है । क्योंकि कर्मों की निर्जरा तप से होती है, से प्राचीन है।
जो दो प्रकार के हैं बाह्य और माभ्यंतर । प्राभ्यंतर तप संस्कृत का 'अनुप्रेक्षा' शब्द प्राकृत में अनुप्पेहा, अनुपेहा छः प्रकार का होता है, जिसमें से स्वाध्याय पांच प्रकार का भनवेहा, अनुप्पेक्खा, और अनुवेक्खा प्रादि अनेक प्रकार होता है-वाचना, प्रच्छना, आम्नाय (स्मृति परियट्टना) से लिखा जाता है। यह अनु और प्र उपसर्ग पूर्वक इक्ष धातु अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा ध्यान चार प्रकार का होता से बना है जिसका अर्थ है चिन्तन, मनन या प्रात्मनिरीक्षण। है-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल, धर्मध्यान के चारभेद हैं, पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में "शरीरादीनां स्वाभावानु- जिनके वाचना, पुच्छना, माम्नाय एवं धर्मकथा ये चार चिन्तनम् अनुप्रेक्षा" कहा है। स्वामीकुमार के अनुसार भालंबन हैं, जो किसी भनित्य, मशरण, एकत्व और संसार "सुतत्तचिंता अणुप्पेहा" है, सिद्धसेन ने भाष्यटीका में "अनु- इन चार अनुप्रेक्षामों पर प्रभाव डालते हैं। उसी प्रकार प्रेक्षणम् अनुचिन्तनम् अनुप्रेक्षा, अनुप्रेक्ष्यन्ते भाव्यन्तेइति वानु- शुवल ध्यान के चारभेदों के चार पालम्बन भाव हैं तथा प्रेक्षा, तादृशानुचिन्तनेन तादृशाभिर्वा वासनाभिःसंवरः सुलभो अवाय अशुभ प्रमंतवत्तीय और विपरिणाम ये चार सहयोगी भवति" अनुप्रेक्षा की परिभाषा दी है। नेमिचंद्र ने अनुप्रेक्षाएं हैं । इस प्रकार अनुप्रेक्षा का धर्म एवं शुक्ल"उत्तराध्ययन" में इसे चिन्तनिका कहा है । पं० माशाघर ध्यान से पूर्णतया निकट का संबंध है । शिवायं ने भगवती के अनुसार "अनुप्रेक्ष्यन्ते शरीराद्यनुगतत्वेन स्तिमित चेतसा आराधना में ऐसा ही माना है । उन्होंने अनुप्रेक्षा को धर्मदृश्यन्ते इत्युनुप्रेक्षा" है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार भ० ध्यान का अन्तिम पावलम्बन कहा है, जिसे वे 'संस्थान शुभचंद के अनुसार "अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरण- विचय' कहते हैं। पर शुक्लध्यान के विवरण में अनुप्रेक्षा, मनित्यादि स्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा निजनिज नामनुसारेण का कोई उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मप्रेक्षा तत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः" है। पूज्यपादने स्वाध्याय कर्मों का संवर करती है ऐसा ही प्रायः अन्य प्राचार्यों का को भी अनुप्रेक्षा कहा है, यथा “अनुप्रेक्षाग्रन्थार्थयोरेवमन- अभिमत है, पर जहां अनुप्रेक्षा का अर्थ स्वाध्याय है, वह