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वर्ष १५ किरण, ६
धम्म
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धनात्यन्यसिन्धुरविधानम् । / सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, बेहली-६ माघ शुक्ला १२, वीर निर्धारण सं० २४८६, विक्रम सं २०१६
फरवरी
सन् १९६३
श्री र-जिन -स्तवन
.मोहरूपो रिपुः पापः कषाय- भट- साधनः ।
दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वयाधीर ! पराजितः ॥ ५॥
अर्थ :- कषाय-भटों की - क्रोध-मान- माया लोभादिक की --- सैन्य से युक्त जो मोह रूप-मोहनीय कर्मरूप
- पापी शत्रु है - म्रात्मा के गुणों का प्रधान रूप से बात करने वाला है—उसे हे धीर अर-जिन ! श्राप ने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और उपेक्षा - परमोदासीन्य लक्षण सम्यक् चारित्र - रूप अस्त्र-शस्त्रों से पराजित कर दिया है।' कन्दर्पस्योद्धरो वस्त्रलोक्य-विजयाजितः ।
हे पयामास तं धीरे त्वयि प्रतिहतोदयः ॥ ६ ॥
धर्म : तीन लोक की विजय से उत्पन्न हुए कामदेव के उत्कट दर्पको महान् ग्रहंकारको धाप ने लज्जित किया है । ग्राप धीर वीर - प्रक्षुभितचित --मुनीन्द्र के सामने कामदेव हतोदय ( प्रभावहीन) हो गया उसकी एक भी कला न चली ।